चार दिन की ज़िन्दगी, मैं किस से कतरा के चलूँ, ख़ाक़ हूँ, मैं ख़ाक़ पर, क्या ख़ाक़ इतरा के चलूँ! |
धूप की गरमी से ईंटें पक गयीं फल पक गए; एक हमारा जिस्म था 'अख़्तर' जो कच्चा रह गया! |
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क़ ने जाना है; हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है! *ख़ाक-नशीनों: तपस्वी |
बंद आँखें करूँ और ख़्वाब तुम्हारे देखूँ; तपती गर्मी में भी वादी के नज़ारे देखूँ! |
रात को रोज़ डूब जाता है; चाँद को तैरना सिखाना है! |
आने वाली है क्या बला सिर पर; आज फिर दिल में दर्द है कम कम! |
देख कर हम को न पर्दे में तू छुप जाया कर; हम तो अपने हैं मियाँ ग़ैर से शरमाया कर! |
तुझ से बिछड़ना कोई नया हादसा नहीं; ऐसे हज़ारों क़िस्से हमारी ख़बर में हैं! |
ना-उमीदी मौत से कहती है अपना काम कर; आस कहती है ठहर ख़त का जवाब आने को है! |
सिर्फ़ एक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में; मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही! |