कहाँ-कहाँ से इकट्ठा करूँ, ऐ ज़िंदगी तुझको, जिधर भी देखूँ, तू ही तू बिखरी पड़ी है। |
मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा; चुप-चाप से बहना, अपनी मौज में रहना। |
चलो मैं भी दौड़ता हूँ इस होड़ की दौड़ में; तुम सिर्फ ये बता दो इसकी मंज़िल कहाँ है! |
कट गया पेड़ मगर ताल्लुक की बात थी; बैठे रहे ज़मीन पर वो परिंदे रात भर! |
जब से पता चला है कि मरने का नाम है ज़िंदगी; तब से कफ़न बांधे कातिल को ढूँढ़ते हैं! |
मैंने तो माँगा था थोड़ा सा उजाला अपनी जिंदगी में; वाह रे चाहने वाले तूने तो आग ही लगा दी जिंदगी में! |
जेब में क्यों रखते हो खुशी के लम्हें जनाब; बाँट दो इन्हें ना गिरने का डर, ना चोरी का! |
ना जाने कब खरच हो गए पता ही नहीं चला; वो लम्हें जो बचा कर रखे थे जीने के लिये! |
जिंदगी दो लफ्ज़ों में यूँ अर्ज है; आधी कर्ज है, तो आधी फर्ज है! |
सख़्त हाथों से भी छूट जाती हैं कभी उंगलियाँ; रिश्ते ज़ोर से नहीं तमीज़ से थामे जाते हैं! |