जवानी हो ग़र जावेदानी तो यारब; तेरी सादा दुनिया को जन्नत बना दें! |
हमरा नाम भी वो लेंगे लेकिन; हमारा ज़िक्र सबके बाद होगा! |
सरकता जाये है रुख से नक़ाब आहिस्ता-आहिस्ता; निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता-आहिस्ता! |
वो कभी मिल जाये मुझको अपनी साँसों के करीब; होंठ को जुंबिश न दूँ और ग़ुफ्त-ग़ू सारी करूँ! |
नहीं निग़ाह में मंज़िल तो जुस्त-जू ही सही; नहीं विसाल मयस्सर तो आरज़ू ही सही! |
मेरे ग़ुज़रे हुये तेवर अभी भूली नहीं दुनिया; अभी बिख़री हुयी हैं हर तरफ़ परछाइयाँ मेरी! |
वो बे-दर्दी से सर काटें और मैं कहूं उनसे; हज़ूृर आहिस्ता-आहिस्ता, जनाब आहिस्ता-आहिस्ता! |
अब भी लोगों के दिल में ख़र की सूरत खटकता हूँ; अभी तक याद है अहल-ए-चमन को दास्तां मेरी! |
है आशिक़ी में रस्म, अलग सब से बैठना; बुत ख़ाना भी, हरम भी, कलीसा भी छोड़ दे! |
ग़ुज़री तमाम उम्र उसी शहर में जहाँ; वाक़िफ़ सभी थे पहचानता कोई न था! |