अमेरिका के 'ग्रैंड कैनियन' जैसी ही शानदार है चंबल घाटी: तिग्मांशु धुलिया

Tuesday, November 19, 2013 13:38 IST
By Santa Banta News Network
तिग्मांशु धूलिया, बॉलीवुड का एक ऐसा नाम है जो आज किसी भी परिचय का मोहताज नही है। बालीवुड के ज्यादातर निर्देशक विदेशी लोकेशन को पंसद करते है। वहीं अगर इस सम्बंध में धुलिया की बात की जाए तो उनका लगाव विदेशों से नहीं बल्कि अपने देश की कुख्यात चंबल घाटी से है। चंबल घाटी के प्रति उनकी दीवानगी का आलम यह है कि वह इसकी तुलना अमेरिका के 'ग्रैंड कैनीयर' से करते है।

लेकिन चंबल के बदलते मिजाज से परेशान धुलिया का यह भी कहना है कि अगर समय रहते चंबल के लिये कुछ नही किया गया तो देश के बेहतरीन पर्यटन केंद्र को हम लोग खो देगे। मशहूर महिला डकैत फूलन देवी की जिंदगी पर बनी फ़िल्म 'बैंडिट क्वीन' की शूटिंग के दौरान चंबल से शुरू हुआ प्यार 'पानसिंह तोमर' से होता 'हुआ बुलेट' राजा के बाद 'रिवाल्वर रानी' तक लगातार जारी रहा है। तिग्मांशु की माने तो चंबल का प्रेम यही बताता है कि वो पिछले जन्म में शायद यहीं पैदा हुए हो लेकिन उसका असर इस जन्म में भी नजर आता है। इटावा हिंदी सेवा निधि के सालाना 21 वें समारोह में भाग लेने आये मशहूर फिल्मकार तिग्मांशु धूलिया से मौजूदा सिनेमाई परिवेश के अलावा कई अन्य मुददो पर वरिष्ठ पत्रकार दिनेश शाक्य से लंबी बातचीत की।

पेश है तिग्मांशु धुलिया से बातचीत के कुछ अंश-

हिन्दी सेवानिधि की ओर से हिन्दी सेवी के तौर पर सम्मानित किये जाने पर कैसा महसूस कर रहे है ?
जाहिर सी बात है कि अगर किसी को भी सम्मान मिलता है तो खुशी तो होती ही है, और हम जैसे लोगों को, जो पर्दे के पीछे रहते है उनको जब जनता के सामने आने का मौका मिलता है तो हम लोग मौके को छोडते नही है। क्योकि हम लोग अभिनेता नही है। एक अभिनेता को तो सब लोग देखते है, हमें कोई नहीं देखता। इसलिये हम कोई भी मौका छोडते नही है और बडा अच्छा लगता है। जब भी अपने उत्तर प्रदेश आने का मौका लगता है तो जरूर आता हूँ। 1986 में मैने इलाहबाद छोड दिया था उसके बाद फिर मुंबई या दिल्ली ही रहा लेकिन जब भी मौका मिलता है तो मैं वो मौका नही छोडता। जब भी यहाँ आता हूँ, अपनी भाषा सुनने को मिलती है और अपने लोगों से मिलने का मौका मिलता है। अपना खाना खाने को मिलता है और नया अनुभव होता है।

आज आपको हिन्दी सेवा निधि की ओर से सम्मानित किया गया है हिन्दी की जो दशा इस वक्त देखी जा रही है इस पर आप क्या कह सकते है ?
मेरा तो यही मानना है कि हिन्दी को जो लोग लिखते है, खास कर आप पत्रकार लोग, वे रचनात्मक हिन्दी, कविता, कहानिया या नॉवेल लिखते है, और इन्होने इसे बहुत जटिल बना दिया है। मैंने तो मेरी पढाई लिखाई सब कुछ इलाहबाद में ही की है। मेरी मां संस्कृत की प्रोफेसर है। वैसे तो हम हिन्दी में ही बात किया करते थे पर मुझे इसके बावजूद भी कभी-कभी काफी दिक्कत आ जाती है। जब हिंदी पढकर मुझे ही दिक्कत आ रही है तो बाकी लोगों को तो जरूर आती होगी। जितना हिन्दी को सरल बनाया जायेगा उतना ही बेहतर रहेगा, प्रेमचंद्र जी, अमृत लाल नागर, या दुष्यंत कुमार (साये मे धूप खिली) इतने प्रसिद्द क्यों है। इनको सब पढते है क्योकि वो जो पढ़ कर समझ आजाए उसे ही पढ़ कर मजा आता है। बाकी हिन्दी को जो लोग लिखते है ऐसा लगता है कि पुलिस का सम्मन है, जिसकों पढ़ते हुए डर लगता है। जब तक उसको सरल नही बनाया जायेगा तब तक यह जन-जन तक पहुँच ही नहीं पाएगी। रही बात हिन्दी सिनेमा की तो जितना हिन्दी सिनेमा हिन्दी को बढाने और लोकप्रिय बनाने मे सहयोग कर रही है उतना किसी और का योगदान नहीं है। सौ सालों से हिन्दी की फ़िल्में बन रही है और दक्षिण में भी रिलीज हो रही है, साथ ही ये उत्तर-पूर्व में भी रिलीज होती है जहाँ पर लोग हिन्दी नही बोलते लेकिन समझ तो पाते है।

खैर इस तरह की बाते उठती रहती है कि चंबल का जो ग्लैमर है वो केवल डाकुओं तक ही सीमित रहता है इसी वजह से फिल्मकार चंबल आते है, इसके अलावा चंबल में किस तरह की संभावनाए आपको लगती है?
देखिये इस मामले में सरकार को भी कुछ करना चाहिए। मैंने चंबल में तीन फ़िल्में बनाई है जो उसकी हालिया तस्वीर को सामने रखने में सहायक है। मैंने अपनी फ़िल्म की शूटिंग धौलपुर में की है। फ़िलहाल 'रिवाल्वर रानी' का मैं निर्माण कर रहा हूँ। अगले पांच सालों में चंबल ख़त्म हो जाएगा। चंबल की जो घाटियां है, जिन्हे हम रिवाइन्स कहते है यह ख़त्म होने की कगार पर है। अगर ये ही चीज विदेश में होती तो बहुत बड़ा टूरिस्ट प्लेस बन जाता। यह अमेरिका के 'ग्रैंड कैनियर' से बिलकुल कम नहीं है। वह किसी 'ग्रैंड कैनियर' से कम नहीं है। इसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं है। चंबल हिंदुस्तान की सबसे साफ और प्यारी नदी है। जिसकी और कोई मिसाल नहीं है। हम तो पीते थे चंबल नदी का पानी। यह बिस्लरी के जैसा था। हमें गांव के लोग इसी पानी से लस्सी और मट्ठा बना कर देते थे। जिस से हमें कभी कोई दिक्कत नहीं आई, और ना ही कोई बीमार पड़ा। यह इतनी सुंदर जगह है जिसके लिए इस से मिले तीनों राज्यों की सरकारों मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान की सरकारों को कुछ ना कुछ करना चाहिए। यह टूरिस्ट प्लेस बनाने के लिए के बहुत अच्छी जगह है।

आजकल तमाम फिल्मों को केवल आइटम डांस के जरिये चलाने की कोशिश की जा रही है इसके कितना सही मानते है आप ?
नही, सिर्फ आयटम डांस से फ़िल्में नही चलती। फिल्म निर्माण बहुत ही अजीब सा हो गया है, जो अच्छा भी है और बुरा भी है। पहले फ़िल्में 25 से 50 हफ्ते चला करती थी। जबकि अब पूरा व्यापार ही फिल्म का सिर्फ एक हफ्ते का हो गया। उसमें आप पहले तीन दिनों में दर्शकों को जितना आकर्षित कर सकते है कर लीजिये। जिसमें आयटम सांग भी शामिल है। तीन दिनों में जितना कलेक्शन हो गया, हो गया। आपने एक हफ्ते में पैसा बना लिया तो ठीक है। हम फिल्मों में छोटे शहर से गये हुए है। वहाँ हम पैसा कमाने के लिए नहीं बल्कि नाम कमाने के लिए गये हुए है। ताकि हमारे जाने के बाद हमारी फ़िल्में नयी पीढ़ी देखे। हम लोग इतिहास में दर्ज होना चाहते है। नहीं तो मैं तो वकालत करता मेरे पूरे परिवार ने वकालत की है। लेकिन अगर यहाँ आए है तो इतिहास में नाम दर्ज कराना होगा और इसके लिए अच्छा काम करना ही होगा। जो सिर्फ आयटम सांग के जरिये नहीं हो सकता।

आप कभी-कभी पर्दे पर भी आते है, 'गैंग्स आफ वासेपुर' में भी आपको देखा गया। आपने बहुत अच्छी एक्टिंग की थी। साथ ही अहम् किरदार भी अदा किया था। आजकल वास्तविकता से जुडी हुई फिल्मों का चलन बढा है। ऐसी फिल्मों को बखूबी लोग देख रहे हैं। ऐसी फिल्मों की जरूरत कितनी है?
सिनेमा बदल रहा है। मुंबई में वे लोग आकर फ़िल्में बना रहे है जो मुंबई से नही है। कुछ लोग बंगाल से आये है, कुछ लाहौर से आये है। जबकि वहाँ भी फिल्म इंडस्टी थी। बाहर से लोग मुंबई आये बहुत अच्छी-अच्छी फ़िल्में बनाई। उस समय सभी लेखक हमारे (यूपी) से ही थे, चाहे वो हजरत जयपुरी हो, मजरूह सुल्तानपुरी हो, कैफी आमजी हो, या सलीम जावेद हो, ये सभी मध्यप्रदेश, यूपी से ही है। अब उनके बच्चे और बच्चो के बच्चे हो गये, जिन्होंने सिर्फ मुंबई देखा है। तो फिल्मों में एक घटियापन आ गया है। एक बासीपन आ गया है। लेकिन अब वो फिल्म निर्माता यहाँ फिल्म बना रहे है, जो मुंबई के नही है बाहर से आये है। कोई दिल्ली से आया है कोई मुजफ्फरनगर से आया है मैं खुद इलाहबाद से हूँ। साथ ही कोई बनारस से आया है। तो हम लोगों के पास अपने जीवन का एक अलग अनुभव है, अपनी भाषा है। साथ ही जो अनुभव हमने किया है बहुत अलग है। छोटे शहरों का अनुभव मुंबई से अलग होता है। यहाँ जाति से लेकर सरनेम तक पहचान बन जाता है कि तुम ब्राहम्ण हो, या ठाकुर हो। प्यार करने में पचास तरीके की दिक्कते आती है। हमारे पास वो अनुभव नहीं है, चाहे वो एक लव स्टोरी का अनुभव हो। चाहे अपनी जाति को लेकर गर्व महसूस करने की बात हो या इसमें शर्म महसूस करे। इन सभी दिक्कतों से जूझ कर जो इंसान मुंबई आया है। तो उसके पास मुंबई में पले-बढे इंसान से ज्यादा अनुभव होगा ही।

फिल्मों में जो गाने आते है वो थोड़े ही समय के लिए सामने आते है, लेकिन पुराने गाने लंबे समय तक चलते थे ऐसा क्यो ?
वो गाने बहुत ही सरलता से लिखे जाते थे। जो आसानी से जुबान पर चढ़ जाते थे। आज कल गाने के बोल आप क्या बता पाएंगे गाने के नाम पर सिर्फ ढक चिक ढक सुनाई देती है। शब्द कहाँ सुनाई देते है।

अभी हाल में आप नया क्या करने वाले है?
अभी इसी महीने 29 नंबवर को मेरी फिल्म आ रही है 'बुलेट राजा' वो देखिये आप।

'बुलेट राजा' में चंबल को लेकर नया क्या रखा है आपने ?
चंबल सेकेंड हाफ में आता है। बुलेट राजा में, सैफ अली खान, जिमी शेर गिल, सोनाक्षी सिन्हा और विधुत जामवाल है। जिसमें विधुत जामवाल एक पुलिस ऑफिसर है, जो इटावा में तैनात है और बहुत तेज तर्रार होने के साथ-साथ बहुत ही साहसी भी है। उनका परिचय मैंने चंबल में ही कराया है। जो कुछ डाकुओ को सरेंडर कराने के लिए आते है। वहाँ कुछ ऐसा हो जाता है। जिसका मैंने बहुत लंबा चौडा सीक्वेंस रखा है और जिसे इटावा में शूट किया है।

'बुलेट राजा' क्या 200 करोड के क्लब मे शामिल हो पायेगी ?
अब मैं ये कैसे कह सकता हूँ, कि शामिल हो पायेगी या नही। यह तो मैं नही कह सकता हूँ। अभी मैंने फिल्म की शूटिंग पूरी की है, साथ ही इसकी मिक्सिंग का काम भी पूरा हो चुका है। मुझे इस इस बात का पूरा भरोसा है कि मुझे गालीयां नही पडेगी।

कुछ वल्गर फ़िल्में आ रही है, जो समाज की दिशा मोड रही है ऐसी फिल्मों पर आपकी राय क्या है ?
अब आप कह रहे है कि वल्गैरिटी आ गई है। मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि आप 'ग्रैंड मस्ती' फिल्म की बात कर रहे होगे अगर यह दिक्कत है तो आप लोगों को फ़िल्म देखने ही नही जाना चाहिए। इस फ़िल्म ने आप लोगों की ही बदौलत सौ करोड का व्यापार किया है। फिर आप लोग बोलते है कि वल्गर है और फिर देखते भी हो। जो बना रहा है वो सिर्फ पैसे के लिए बना रहा है उसने इतनी सस्ती पिक्चर बनाई और उसने सौ करोड का बिजनेस कर लिया। इसमें उनकी कोई गलती नही है गलती आप की है जो आपने ऐसी फिल्म देखी।

केरल के राज्यपाल निखिल कुमार ने आप से हिन्दी उपन्यास 'गुनाह का देवता' पर फिल्म बनाने की बात कही थी, क्या राज्यपाल की बात पर अमल करेगे ?
राज्यपाल महोदय के मशवरे को ना केवल सार्वजनिक तौर पर सुना गया है बल्कि व्यक्तिगत तौर पर भी उनसे अलग बातचीत भी हुई है। जाहिर है राज्यपाल महोदय की ओर से रखी गई पहल पर अमल करने की कोशिश जरूरी करूंगा।
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