वह कहते है, "समाज की बुराइयों के लिए सिनेमा को दोषी ठहराना बहुत ही आसान काम है। मूवीज इसका बेहद आसान निशाना है और इसके लिए फ़िल्म इंडस्ट्री वापस लड़ाई नहीं कर सकती। हम एक भीड़ की मानसिकता के शिकार है।
दरअसल इमरान ने अपनी फ़िल्म के प्रोमोशन में, ज्यादातर फिल्मों के प्रति सामने आने वाले विरोधों को लेकर चिंता जताई। वह कहते है कि यह हर बार होता है कि हमारे ऊपर गीत के बोल और फ़िल्म के शीर्षक बदलने के लिए दबाव बनाया जाता है। अंत में आप को भीड़ के द्वारा परेशान किया जाता है। जिसमें वह थियटर को जला देते है या घरों पर पत्थर फैंकते है।
बीच में, भारत में, महिलाओं के प्रति बढ़ती हिंसा और अपशब्दों के लिए एक सामाजिक वर्ग ने फिल्मों में दिखाए जाने वाले आयटम सांग, गीतों और कोरियोग्राफी को यह कह कर दोषी ठहराया था कि ये महिलाओं के प्रति अपमान जनक है। साथ ही खान हमेशा से ही सामाजिक मुद्दों से जुडी संस्थाओं जिसमें मतदान भी शामिल है, के सहायक के रूप में जाना जाता है। वोट करना एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का बहुत छोटा सा हिस्सा है।
इस पर चर्चा करते हुए इमरान कहते है, "अगर आप वोट नहीं करते तो आपको शिकायत करने का भी कोई हक़ नहीं है। अगर आप वोट डालने नहीं गये है तो आप देश की हालत के बारे में बैठ कर शिकायत नहीं कर सकते।"
इमरान कहते है, "भारतीय फ़िल्म जगत इस समय पुनर्जागरण के दौर से गुजर रहा है। साथ ही यह एक संक्रमणकालीन चरण भी है जहाँ फ़िल्म निर्माता कहानी और फिल्म निर्माण पर नये-नये प्रयोग कर रहे है।
वह अपनी बात को बढ़ाते हुए कहते है, "यह संभव समय पर सही है और समय के साथ-साथ और भी बेहतर हो रहा है। यहाँ हर फ़िल्म के लिए दर्शक है, जिसके बारे में हम सोचते है कि इसमें किसी को मज़ा नहीं आएगा। यह एक नवयुग है। इमरान कहते है कि यह बड़े ही दुर्भाग्य की बात है कि मूवीज और अभिनेता हमेशा समाज के उन विरोधों का सामना करते है जिनमें फ़िल्म के शीर्षक और गानों पर अनुचित या अप्राकृतिक होने के आरोप लगाए जाते है।
जबकि अपनी पिछली फिल्मों 'मटरू की बिजली का मनडोला' और 'वन्स अपॉन अ टाइम इन मुम्बई' के समय में इमरान ने कहा था कि उनके लिए यह समय जबर्दस्त तरक्की का है। वह कहते हैं कि मैं वह काम करते रहना चाहता हूँ जिस से मुझे ख़ुशी मिलती है और जिस से मुझे बाद में पछताना ना पड़े।