फिल्म समीक्षा: 'देख तमाशा देख' मजबूत मुद्दा लेकिन अप्रभावी कहानी

Friday, April 18, 2014 21:56 IST
By Lata Chaudhary, Santa Banta News Network
>​​ अभिनय: सतीश कौशिक, विनय जैन, गणेश यादव, संतोष जुवेकर, तन्वी आजमी

​​ ​निर्देशन : ​​फिरोज अब्बास खान

​​ ​स्टार: 1. 5

​​ फिल्म 'देख तमाशा देख' कभी मुज़्ज़फरनगर में हुए हिन्दू-मुस्लिम दंगों और कभी फिल्म 'रामलीला' के राम और लीला के अलग-अलग सम्प्रदायों के दो प्रेमियों की झलक प्रस्तुत करती है। फिल्म पूरी तरह से हिन्दू-मुस्लिम के आपसी टकराव पर आधारित है। कमजोर पर ताक़तवर का ज़ोर, ईमानदारी और सच्चाई पर बेईमानी और झूठ का ज़ोर 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' को चरितार्थ करती है। कुछ असामाजिक तत्व जो मासूम लोगों को अपनी मन मर्जी के अनुसार बहका लेते है, और पुलिस के पास या तो चुप रहने या उनका साथ देने के अलावा कोई चारा नहीं है। फिल्म का हर दृश्य कुटिल चालाकियों, आपसी रंजिश और खून ख़राबे से भरपूर है। जिसे निर्देशक ने कॉमेडी का स्प्रे कर के तैयार किया है लेकिन फिल्म के दृश्यों में बांध के रखने की क्षमता नहीं है।

​​ फिल्म एक मृत व्यक्ति के चारों तरफ घूमती है, जो हिन्दू से मुसलमान बनकर दूसरी शादी करता है। लेकिन उसके मरने के बाद वह हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के बीच दंगों का कारण बन जाता है। जहाँ हिन्दू उसे जलाना चाहते है वहीं मुस्लिम उसे दफ़नाना चाहते है। मामला न्यायालय तक भी जाता है, लेकिन ना तो हिन्दुओं के पास उसके हिन्दू होने का कोई सबूत है और ना मुसलमानों के पास उसके मुसलमान होने का। दोनों समुदायों में कलह इस हद तक बढ़ जाती है कि हर गली सिर्फ खून और कर्फ्यू ही दिखाई देता है।

इस मामले में जहाँ दोनों समुदायों के बीच पुलसी निर्बल है और कमजोर पक्ष है, वहीं कुछ असामाजिक तत्व ऐसे भी है, जिन्हें इसका फायदा भी मिलता है। इन लोगों में शामिल है मुस्लिम समाज के धर्मगुरु (सुधीर पांडे), एक न्यूज़ पेपर प्रकाशक मुत्था सेठ (सतीश कौशिक) और उनके पेपर के संपादक और हिन्दू सम्प्रदाय के कुछ भड़काऊ असामाजिक तत्व।

वहीं दूसरी और इन घटनाओं से परेशान कुछ ईमानदार और समाज की भलाई चाहने वाले लोग भी है, जिनमें एक ईमानदार पुलिस अधिकारी विश्वास राव (विनय जैन) जिसका अभी-अभी तबादला इस साम्प्रदायिक दंगो से जूझ रहे गाँव चांदा में हुआ है, एक बुजुर्ग लेखक और विचारक जिसने समाज का आइन दिखाने के लिए एक किताब लिखी है, लेकिन वह असामाजिक तत्वों के हक़ में ना होने के कारण जला दी जाती है, और एक मुस्लिम लेखक जिसके घर को इसलिए जला दिया जाता है क्योंकि वह मुस्लिम धर्म गुरु के भड़काऊ भाषण के लाफ आवाज़ उठाते हुए उन्हें इस तरह की बात पर लताड़ता है, और इंसानियत की बात उठाता है।

एक मुस्लिम लड़की है, जो एक हिन्दू लड़के से प्रेम करती है, लेकिन इसका खामियाजा उसे अपने प्रेमी की जान देकर चुकाना पड़ता है, और इन दोनों के दृश्य फिल्म 'रामलीला' की याद दिलाते है। वहीं एक माँ और पत्नी (तन्वी आज़मी) है, जिसके पति और एक बेटा इन्ही साम्प्रदयिक दंगों की बलि चढ़ गए है, और अब वह इतनी कठोर हो गई है, कि इतनी गंभीर परिस्थितियों में भी उसकी आँखों में आंसू नहीं आते। फिल्म का एक दृश्य जिसमें वह लड़की जिसका प्रेमी मर चुका है वह अपनी माँ से पूछती है कि "क्या आप मुझे उस से शादी के लिए आज्ञा दे देती" तो माँ कहती है कि नही! "क्योंकि वह हिन्दू था।" इस पर लड़की का कहना था कि अगर मैं भाग जाती तो, इस पर माँ का जवाब था कि फिर मैं नहीं रोकती" और दोनों रोने लगती है यह दृश्य रुालने वाला है।

एक ​लालची प्रकाशक की भूमिका में कॉमेडियन सतीश कौशिक ने अच्छा अभिनय किया है। वहीं मुस्लिम समुदाय के धर्मगुरु के रूप में सुधीर ​पांडे​ ने भी बेहतरीन कला का प्रदर्शन किया है। तन्वी आज़मी फिल्म में ज्यादातर चुप रहने के बावजूद प्रभावी रही है। वहीं ​अनियंत्रित ​मुस्लिम युवा के रूप में संतोष जुवेकर ने भी अच्छा काम किया है। ​

​ ​ फिल्म निर्माता, और निर्देशक ​​​फिरोज अब्बास खान ​ ने निस्संदेह हिन्दू-मुस्लिम दंगों के बेहद गंभीर मुद्दों को उठाया है। साथ ही फिल्म की शैली भी कॉमेडी-थ्रिल है लेकिन फिल्म की कहानी, दृश्यों और उनके जुड़ाव अव्यवस्थित और उलझे हुए प्रतीत होते है।

फिल्म में सिर्फ एक ही गाना है, 'शाना वालेया' ​ जिसे आरिफ लोहार​ ने अपनी आवाज़ ने दी है। गाने के बोल और कंपोज़िंग अच्छी है। जिसे फिल्म के अंत में प्ले किया जाता है।
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