By Ankur Karan Singh
कलाकार: पार्थो गुप्ते, साकिब सलीम, नेहा जोशी,  दिव्या जगदले, सँजय डडिच, ओर रज़्ज़ाक ख़ाँ
निर्देशक: अमोल गुप्ते 
रेटिंग:*** 
 
अगर भारतीय सिने जगत में आज कल प्रचलित चलन पर नजर डाली जाये तो इस बात को लेकर कोई भी शक या शगूफा नही रह जाता, कि इस दौर में अधिकतर फ़िल्म निर्माताओं एवम निर्देशकों का रुझान मसाला या पैसा कमाऊ चलचित्रों की तरफ़ अत्याधिक है। परन्तु इस दौर में कुछ निर्देशक ऐसे भी हैं जो की अभी भी मसाला फिल्मों से कोसो दूर हैं, और अगर उनके लिए कुछ महत्व रखता है तो वह है उत्कृष्ट सिनेमा, और ऐसे ही एक निर्देशक हैं अमोल गुप्ते, जो कि गुज़रे कुछ वर्षों से दर्शकों को अपनी विशिष्ट प्रकार की सिने शैली से मंत्रमुग्ध करते आ रहे हैं। 
"तारे ज़मीन पर", और "स्टैनली का डब्बा" जैसी कुछ उत्कृष्ट फिल्मोँ से अमोल ने दर्शकों के दिल में ना सिर्फ जगह बनाई है बल्कि हर बार उत्कृष्ट चलचित्र से उनका मनोरंजन भी किया है। 
एक बार फ़िर अपनी उच्च कोटि कि सिनेमा शैली का लोहा मनवाने के लिये अमोल ने इस बार वापसी क़ी है "हवा हवाई" के साथ।
परंतु "हवा हवाई" की समीक्षा से पहले मैं एक प्रसिद्ध कवि की रचना का उल्लेख करना चाहुंगा, जिसमे उन्होने कहा था कि, "मंज़िल उसी को मिलती है जिसके सपनों में जान होती है, पंखो से क़ुछ नही होता दोस्त हौसलो से उडान होती है।" और अगर देखा जाये तो बहुत हद तक अमोल कि यह सिने-रचना जिसमे कि पर्थो गुप्ते और सक़िब सालीम मुख्य भूमिका में हैं, इन पंक्तियों को चरितार्थ भी करती है।
"हवा हवाई" एक ऐसे लड़के अर्जुन हरिश्चंद्र वाघमारे ( पार्थो गुप्ते) की कहानी है जो कि अपने पिता हरिश्चंद्र वागमारे ( मकरंद देशपांडे) की मृत्यु उपरांत अपने गाँव को छोड़ मायानगरी मुंबई में अपने परिवार समेत आ बसता है। यहाँ आकर अपनी और अपने परिवार की जीविका चलाने हेतु वह एक छोटी सी चाय की दुकान मेँ नौकरी करने लगता है। जिस चाय की दुकान में अर्जुन नौकरी करता है उसके समीप ही एक स्केटिंग प्रशिक्षण केंद्र भी होता है जहां अभ्यास करते अन्य बच्चोँ को देख अर्जुन के ह्रदय में भी स्केटिंग के प्रति रुचि जाग जाती है, और वह भी एक कुशल स्केटर बनने क सपना देखने लगता है।
 कहानी के आगे बढ़ने के साथ ही अर्जुन की मुलाकात उस प्रशिक्षण अकादमी के प्रशिक्षक लक्की (साकिब सलीम) से होती है। और एक दिन अचानक लक्की को अर्जुन क़ी अप्रकट लालसा के बारे में पता चलता है तो वह उसे इस इरादे से स्केटिंग का प्रशिक्षण देना शुरु करता है, कि एक दिन अर्जुन स्केटिंग जगत में अपने लिये एक खास मुकाम हासिल करे। तो क्या अर्जुन का सपना पूरा होता है? या वह अपने सामान्य जीवन कि तकलीफो से दो चार होता रहता है, जानने के लिये देखें, "हवा हवाई"।
यूँ तो "हवा हवाई" की कहानी मैं कुछ अत्यन्त नवीन नही है परन्तु जिस कुशलता से अमोल ने,  मानव जीवन की कईं प्रत्यक्ष रहते हुए भी अप्रत्यक्ष रहने वाले पहलुओं को छुआ है वह काबिल-ए-तारिफ है।  चाहे वह एक उधार तले दबे किसान कि व्यथा हो, या नन्हीँ आँखों पलते सपनें और चाहे धनाढ्य एवम गरीब बच्चोँ की जीवन शैली क फर्क, अमोल ने हर एक पक्ष को दर्शाते हुए कईं ऐसे आयामों को एक ही कहानी में  पिरो दिया है जो की आपको स्वतः ही सोचने पर मजबूर कर देते हैं। तो कुल मिला कर अगर एक वाक्य में कहा जाये तो, बेशक "हवा हवाई" की कहानी सामान्य है परन्तु बावज़ूद उसके वह कहीं ना कहीं आपके दिल ओ दिमाग तक पहुँचने का  रास्ता बना ही लेतीं है।
वैसे तो अमोल की पिछली फिल्में देख्ने के बाद इस बारे में कोई दो राय नहीं रह जाती कि किसी भी फ़िल्म पर कार्य करते  हुए अमोल उस से जुडी हर बारीकी पर नजर रखते हैं, और यह बात "हवा हवाई" के निर्देशन एवम पटकथा मंचन से एक बार फ़िर प्रामाणित हो जातीं है। "हवा हवाई" का ना सिर्फ निर्देशन उच्च कोटि का है बल्कि इसकी पटकथा की रचना भी इतनी उत्कृष्ठ है कि किसी भी पल आप बड़े पर्दे से अपनी निग़ाहों को परे करने के बारे में सोचते भी नही। हालाकि मध्य काल से पहले  और कुछ हद तक द्वितीय भाग में कुछ एक क्षणों को अपको यह मह्सूस होता है कि कुछ एक दृश्य अनावश्यक रूप से ही कहानी में जोड़े गये हैं परंतु फ़िल्म के अन्य पहलुओं को देखते हुए इन कुछ सूक्ष्म दोषों को नजर अंदाज किया जा सकता है।
हितेश सोनी का संगीत और अमोल गुप्ते के द्वार लिखे गये गीत बहुत हद तक फिल्म की भावना के अनुरुप हैं।
"हवा हवाई" में अपनी अभिनय कुशलता से पार्थो  ने एक बार फ़िर प्रमाणित कर दिया है कि वे एक शानदार कलाकार हैं, और इस बात की अच्छी समझ रखते हैं कि उनके निर्देशक उनसे  किस तरह के अभिनय की आशा रखते हैं। दूसरी ओर सक़िब भी अमोल क़ी उमीदो पर खरे उतरे हैँ हालाकि मध्य काल से पहले वे कुछ खास करते नही दिखते, परंतु दूसरे भाग में अपने दमदार प्रदर्शन के बूते वे भी काफी हद तक अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहते हैं।
परन्तु इन दो अभिनेताओं के अलावा जो चार लोग "हवा हवाई" को एक आनन्ददायी अनुभव बनाते हैं वे हैं पार्थो क़ा साथ निभाने वाले उनके दोस्त भूरा ( सलमान छोटे खान), गोची (अशफ़ाक़ खान) अब्दुल (मामन मैमन) और बिंदास मुरुगन (तिरुपति कृष्णपल्ली), जिनमे से की अशफाक खान क़ी अदाकारी निसंदेह ही आपका ध्यान आकर्षित करती है।
इनके अलावा नेहा जोशी (जिन्होंने की पार्थो की माँ का किरदार निभाया है) समेत दिव्या जगदले, सँजय डडिच, ओर रज़्ज़ाक ख़ाँ ने भी अपनी भूमिकाएं क़ाफी कुशलता से निभायी हैं।
अंत में "हवा हवाई" के बारे में बस इतना ही कहा जा सकता है कि बेशक इसकी क़हानी में कुछ बहुत ज़्यादा नयापन नहीं है, परन्तु उसके बावजूद यह एक उत्कृष्ट सिनेमा शैली का नमूना हैं जो की हर उम्र के दर्शकोँ को ज़रूर पसंद आएगी।  
                            
                            फिल्म समीक्षा: 'हवा हवाई' एक मंत्रमुग्ध कर देने वाली फिल्म है
                                            Friday, May 09, 2014
                                        
                                     
                             
                    
 
                             
                            
 
                             
                             
                             
                             
                             
                             
                            