कवियित्री की सुहागरात!

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    उस रात की बात न पूछ सखी जब साजन ने खोली अँगिया

    स्नानगृह में नहाने को जैसे ही मैं निर्वस्त्र हुई,

    मेरे कानों को लगा सखी, दरवाज़े पर है खड़ा कोई,

    धक्-धक् करते दिल से मैंने, दरवाज़ा सखी री खोल दिया,

    आते ही साजन ने मुझको, अपनी बाँहों में कैद किया,

    मेरे यौवन की पा के झलक, जोश का यूँ संचार हुआ,

    जैसे कोई कामातुर योद्धा रण गमन हेतु तैयार हुआ,

    मदिरापान प्रारंभ किया, मेरे होठों के प्याले से,

    जैसे कोई पीने वाला, बरसों दूर रहा मधुशाले से,

    होठों को होठों में लेकर, उरोजों को हाथों से मसल दिया,

    फिर साजन ने सुन री ओ सखी,जल का फव्वारा खोल दिया,

    भीगे यौवन के अंग-अंग को, काम-तुला में तौल दिया,

    कंधे, स्तन, नितम्ब, कमर कई तरह से पकड़े-छोड़े गए,

    गीले स्तन सख्त हाथों से,वस्त्रों की तरह निचोड़े गए,

    जल से भीगे नितम्बों को, दांतों से काट-कचोट लिया,

    जल क्रीड़ा से बहकी थी मैं, चुम्बनों से मैं थी दहक गई,

    मैं विस्मित सी सुन री ओ सखी, साजन की बाँहों में सिमट गई,

    वक्षों से वक्ष थे मिले हुए, साँसों से साँसें मिलती थी,

    परवाने की आगोश में आ, शमाँ जिस तरह पिघलती थी,

    साजन ने फिर नख से शिख तक, होंठों से अतिशय प्यार किया,

    मैंने बरबस ही झुककर के, साजन का अंग दुलार दिया,

    चूमत-झूमत, काटत-चाटत, साजन पंजे पर बैठ गए,

    मैं खड़ी रही साजन के लब, नाभि के नीचे पैठ गऐ,

    मेरे गीले से उस अंग से, उसने जी भर रसपान किया,

    मैंने कन्धों पर पाँवों को, रख रस के द्वार को खोल दिया,

    मैं मस्ती में थी डूब गई, क्या करती थी ना होश रहा,

    साजन के होठों पर अंग रख, नितम्बों को चहुँ ओर हिलोर दिया,

    साजन बहके-दहके-चहके, मोहे जंघा पर ही बिठाय लिया,

    मैंने भी उनकी कमर को, अपनी जंघाओं में फँसाय लिया,

    जल से भीगे और रस में तर अंगों ने, मंजिल खुद खोजी,

    उनके अंग ने मेरे अंग के, अंतिम पड़ाव तक वार किया,

    ऊपर से थे जल कण गिरते, नीचे दो तन दहक-दहक जाते,

    यौवन के सुरभित सौरभ से, अन्तर्मन महक -महक जाते,

    एक दंड से चार नितम्ब जुड़े, एक दूजे में धँस-धँस जाते,

    मेरे कोमल, नाजुक तन को, बाँहों में भर -भर लेता था,

    नितम्ब को हाथों से पकड़े वो, स्पंदन को गति देता था,

    मैंने भी हर स्पंदन पर था, दुगना जोर लगाय दिया

    मेरे अंग ने उनके अंग के, हर एक हिस्से को फँसाय लिया,

    ज्यों वृक्ष से लता लिपटती है, मैं साजन से लिपटी थी यों,

    साजन ने गहन दबाव दे, अपने अंग से चिपकाय लिया,

    अब तो बस एक ही चाहत थी, साजन मुझमें ही खो जाएँ,

    मेरे यौवन को बाँहों में, भरकर जीवन भर सो जाऐं,

    होंठों में होंठ, सीने में वक्ष, आवागमन अंगों ने खूब किया,

    सब कहते हैं शीतल जल से, सारी गर्मी मिट जाती है,

    लेकिन इस जल ने तन पर गिर,मन की गर्मी को बढ़ाए दिया,

    वो कंधे पीछे ले गया सखी, सारा तन बाँहों में उठा लिया,

    मैंने उसकी देखा-देखी, अपना तन पीछे हटा लिया,

    इससे साजन को छूट मिली, नितम्ब को ऊपर उठा लिया,

    अंग में उलझे मेरे अंग ने, चुम्बक का जैसे काम किया,

    हाथों से ऊपर उठे बदन, नितम्बों से जा टकराते थे,

    जल में भीगे उत्तेजक क्षण, मृदंग की ध्वनि बजाते थे,

    खोदत-खोदत कामांगन को, जल के सोते फूटे री सखी,

    उसके अंग के फव्वारे ने, मोहे अन्तःस्थल तक सींच दिया,

    मैंने भी मस्ती में भरकर, उनको बाँहों में भींच लिया,

    साजन के जोश भरे अंग ने, मेरे अंग में मस्ती को घोल दिया,

    सदियों से प्यासे तन-मन को, प्यारा तोहफा अनमोल दिया,

    फव्वारों से निकले तरलों से, तन-मन थे दोनों तृप्त हुए,

    साजन के प्यार के मादक क्षण, मेरे अंग-अंग में अभिव्यक्त हुए,

    मैंने तृप्ति के चुंबन से फिर, साजन का सत्कार किया,

    दोनों ने मिल संभोग समाधि का, यह बहता दरिया पार किया,

    उस रात की बात न पूछ सखी, जब साजन ने खोली अँगिया।
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