वो छत पर खड़ी थी। बाल खुले और बिखरे कभी मुँह इधर कभी उधर, बार-बार सामने निहारती दिन दुनियाँ से बेखबर, मुझे बहुत दया आ रही थी। इतनी कम उम्र में पागल होना। पूरी जिंदगी पड़ी है। क्या होगा? कैसे होगा? मुझे उसके पिता की चिंता सताने लगी। बेचारा दिन रात मेहनत करके परिवार पालता है। ऊपर से इस पागल लड़की को कैसे संभालेगा? धीरे-धीरे पागलपन और बढ़ गया।अब तो वह मुंडेर पर बैठ गयी थी। मैं घबराया, मैंने अपनी बिटिया को बुलाया और अपनी चिंता से अवगत कराया । बिटिया बोली, "अरे पापा वो पागल नहीं हैं, वो तो सैल्फी ले रही है।" |