घई की पिछली कुछ फिल्में- 'युवराज', 'कांची: द अनब्रेकबल' और 'ब्लैक एंड व्हाइट' दर्शकों का दिल नहीं जीत सकीं। 1980 और 1990 के दशक में उनकी तूती बोलती थी।
घई ने बताया कि भारतीय सिनेमा कमाई करने वाला उद्योग बनकर रह गया है। पहले यह एक रचनात्मक उद्योग था, लेकिन अब इसमें व्यापारीकरण ज्यादा घुस गया है। अब कलाकार एक तय दृश्य या अदाकारी के बारे में बात नहीं करते, वे फिल्म की कमाई के बारे में बात करते हैं।
घई ने नामचीन कलाकारों के बढ़ते मेहनताने को लेकर भी चिंता जताई। उन्होंने कहा कि फिल्म कॉरपोरेट कंपनियों ने हालिया वर्षों में बहुत नुकसान उठाया है। सिर्फ नामचीन स्टार की मौजूदगी और विपणन कंपनियों को मुनाफा हुआ।
उन्हें इस बात पर गर्व है कि जब उनके सितारे बुलंद थे, तो स्टार उनके पीछा भागा करते थे। उन्होंने कहा कि निर्माताओं को अपने बजट की आधी रकम सितारों पर लुटाने की बजाय अच्छी कहानी वाली फिल्में बनाने और उनमें हाथ आजमाने की कोशिश करनी चाहिए। मैं अपनी फिल्म के बजट का महज 10 फीसदी सितारों को देता था, लेकिन अब सितारे फिल्म में अभिनय करने की बजाय निर्माताओं को समर्थन देने में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं।
घई को इस महीने की शुरुआत में मलेशिया में इंटरनेशनल इंडियन फिल्म एकेडमी (आईफा) वीकेंड एंड अवॉर्ड्स में लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार से नवाजा गया। उन्हें लगता है कि अभिनेताओं को फिल्म निर्माण के क्षेत्र में नहीं आना चाहिए, क्योंकि इससे निर्देशक का काम और मुश्किल हो जाता है।
घई ने कहा कि निर्देशक फिल्म निर्माता बन गए हैं, क्योंकि वे नहीं चाहते कि उनकी विश्वनसीयता में कोई दूसरा व्यक्ति हस्तक्षेप करे। लेकिन जब अभिनेता फिल्म निर्माता बन जाते हैं, तो वे निर्देशक पर हुक्म चलाने की कोशिश करते हैं। इन दिनों कॉरपोरेट लोग प्रत्येक अभिनेता को निर्माता बनने के लिए कह रहे हैं। राजकुमार हिरानी और रोहित शेट्टी जैसे तीन-चार निर्देशकों को छोड़कर बाकी सारे बाध्य हैं।