फिल्मकार का कहना है 1990 के दशक के अंतिम समय में हिंदी फिल्म उद्योग में अभिनेत्रियों के वर्चस्व का दौर नहीं था, लेकिन अब यह वापस पूरे जोर-शोर से लौट आया है। फिल्म बाजार के मौके पर मिश्रा ने कहा, "यह बदलाव अद्भुत है। इस बदलाव के साथ हम फिर से अभिनेत्रियों के वर्चस्व वाले 1950 के दौर की ओर लौट रहे हैं। 1980 और 1990 के दशकों में कहा जाने लगा था कि 'लोग महिलाओं को मुख्य किरदार में नहीं देखना चाहते' या 'महिला केंद्रित फिल्में नहीं बनानी चाहिए, क्योंकि वे सफल नहीं होंगी।"
मिश्रा ने कहा, "मीना कुमारी, नर्गिस और मधुबाला जैसी 1950 के दशक की अभिनेत्रियां पुरुष कलाकारों जितनी ही बेहतरीन थीं। मिश्रा ने कहा, "यह नया नहीं है। जब हम नया कहते हैं तो हमें पुराने का अपमान नहीं करना चाहिए। आज हमारे पास मीना कुमारी, नर्गिस या वहीदा रहमान के स्तर का कोई नहीं है।"
राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता निर्देशक ने जोर देकर कहा कि महिला प्रधान फिल्में केवल वर्तमान समय का चलन नहीं हैं। मिश्रा के मुताबिक, "फिल्म 'पीकू' या 'क्वीन' देखिए या श्याम बेनेगल का काम देखिए, स्मिता पाटील, शबाना आजमी, दीप्ति नवल द्वारा निभाए किरदार देखिए या प्रकाश झा की फिल्में देखिए, आप जान जाएंगे कि भारत में कई फिल्मकारों ने महिलाओं को पुरुषों के ही समान सशक्त, कुटिल, अद्भुत या विश्वासघात करने में समर्थ दिखाया है।"
'हजारों ख्वाइशें ऐसी', 'चमेली', 'इंकार' जैसी मिश्रा की सभी फिल्मों में सशक्त महिला किरदार हैं। मिश्रा ने कहा, "मैं किसी और प्रकार की महिला को नहीं जानता। इसलिए आप मेरी आगामी फिल्म 'दासदेव' में एक अन्य सशक्त महिला किरदार देखने की उम्मीद कर सकते हैं। मिश्रा ने यह भी बताया कि वह अपनी अगली फिल्म 'महरुन्निसा' पर काम कर रहे हैं, लेकिन उन्होंने इसके बारे में ज्यादा कुछ बताने से इंकार कर दिया।