निर्देशक: अभिषेक शर्मा
रेटिंग: **1/2
द ज़ोया फैक्टर कहानी है, ज़ोया सोलंकी की, जिसका जन्म कपिल देव की कप्तानी में भारत के पहला क्रिकेट विश्व कप जीतने के दिन, यानी 25 जून 1983 को हुआ था. इस जीत का श्रेय एक नवजात जोया को देते हुए उसके पिता (संजय कपूर) कहते हैं है की वह क्रिकेट के लकी है और एक दिन उसका यह उसे दुनियाभर में मशहूर बनाएगा. आगे चल कर यह सच साबित भी होता है जब बात ज़ोया के पिता और भाई जोरावर (सिकंदर खेर) के गली और स्थानीय क्रिकेट मैच जीतने की आती है, ज़ोया जब भी उनके साथ नाश्ता करती है वे मैच जीत जाते हैं. हालांकि ज़ोया को क्रिकेट से नफरत है फिर भी वह उन्हें हर बार मैच जीता देती है.
ज़ोया बड़ी हो कर एक एड एजेंसी में एक कॉपीराइटर का काम करने लगती है और एक दिन उसे भारतीय क्रिकेट टीम के साथ आगामी क्रिकेट विश्व कप के लिए एक विज्ञापन शूट करने का मौका मिलता है, जहां वह टीम के कप्तान निखिल खोड़ा (दुलकर सलमान) से मिलती है जिसे वह पहले से ही पसंद करती है और उस मिल कर उसे दिल दे बैठती है. क्रिकेट टीम के साथ नाश्ता करते हुए, जोया अपनी क्रिकेट की लकी चार्म होने की कहानी उन्हें सुनाती है, जिसके बाद लगातार कई मैच हारने वाली यह टीम अपना अगला वर्ल्ड कप मैच चमत्कारिक ढंग से जीत जाती है और टीम के सभी खिलाडी भी जोया को अपना चार्म मानने लगते हैं. लेकिन, कप्तान निखिल भाग्य पर निर्भर रहने के बजाय कड़ी मेहनत और आत्म-विश्वास में यकीन करते हैं और जीत के लिए ज़ोया पर निर्भर रहने के खिलाफ हैं. इसके बावजूद, निखिल और ज़ोया को एक दूसरे से प्यार हो जाता है और दोनों डेट करने लगते हैं.
टीम और सेलेक्टर्स का बोर्ड ज़ोया को उनकी लकी चार्म होने के कारण विश्व कप में भारत की लकी मैस्कॉट बनाना चाहटे है लेकिन निखिल इसके पक्ष में नहीं है. ज़ोया की कहानी में एक इंटरेस्टिंग मोड़ तब आता जब उसे टीम इंडिया के साथ एक ऐड शूट के लिए क्रिकेट विश्व कप में भेजा जाता है, और उसके लक फैक्टर के कारण टीम हर मैच जीतने लगती है और ज़ोया को पूरा देश देवी मान कर उसकी पूजा करने लगता है जिसके बाद उसकी ज़िन्दगी उथल पुथल हो कर रह जाती है.
निर्देशक अभिषेक शर्मा ने क्रिकेट और भारत में प्रचलित अंधविश्वास पर तंज कसते हुए एक रोमांटिक कॉमेडी दिखाने की नाकाम कोशिश की है. फिल्म दर्शकों से ये सवाल करती नज़र आती है की आखिर क्या ज्यादा ज़रूरी है, अंधविश्वास और भाग्य या आत्म-विश्वास और कड़ी मेहनत.
फर्स्ट हाफ में फिल्म का स्क्रीनप्ले कुछ मजेदार है, मगर कई जोक्स सादे और पुराने लगते हैं. सेकेंड हाफ में फिल्म की कहानी जोर पकडती हैं और वर्ल्ड कप का फाइनल आते - आते स्क्रीनपले फनी हास्य से धीरे - धीरे गंभीर होने लगता है.
द जोया फैक्टर का सबसे बढ़िया फैक्टर है फिल्म की बैकग्राउंड मैच कमेंटरी, जो की बहुत ही मजेदार है और आपको हर बार हंसाती है. ये कमेंटरी स्टोरीलाइन को सहारा देने के साथ ही एक ढीले कहानी को इंटरेस्टिंग भी बनाती है.
एक्टिंग के डिपार्टमेंट में, दुलकर सलमान, भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान 'निखिल' के रूप में जितने बढ़िया लग सकते थे, लगे हैं. दुलकर ने निखिल के किरदार को परदे पर शालीनता के साथ पेश किया है और उसके साथ पूरा इंसाफ किया है. सोनम कपूर से ज्यादा, दुलकर एक गंभीर मगर रोमांटिक निखिल के रूप में अपनी छाप छोड़ने में सफल हुए हैं.
सोनम कपूर एक नादान कॉपीराइटर ज़ोया के रूप में कुछ ज्यादा ही भोली दिखने की कोशिश करते नज़र आती हैं जो की काम नहीं करता. भारतीय क्रिकेट टीम की लकी चार्म के रूप में यह ज़ोया मज़ेदार लगती है और सोनम की कॉमिक टाइमिंग भी अच्छी है. इन सब के बावजूद सोनम के पास एक बढ़िया मौका था कुछ नया करने और कुछ नए एक्सप्रेशंस दिखाने का जिसे उन्होंने बड़ी आसानी से गँवा दिया है क्योंकि जोया के किरदार में काफी गुंजाईश थी.
फिल्म की सहायक कास्ट का काम ठीक ठाक है. जोया के पिता और भाई जोरावर के रूप में 'संजय कपूर' और 'सिकंदर खेर' की जोड़ी बढ़िया लगी है और दोनों आपको हंसाने में भी कामयाब रहते हैं.
अंगद बेदी ने, टीम में निखिल के प्रतिद्वंद्वी, जो की बतौर कप्तान उसकी जगह लेना चाहता है, अपने किरदार में अच्छे रन बनाए हैं. खिलाडियों के रूप में बाकि कलाकारों ने भी ठीक काम किया है लेकिन एक गुस्सैल बल्लेबाज़ 'शिवी' के रूप में अभिलाष चौधरी को छोड़कर, कोई भी अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाया है.
शंकर एहसान लॉय का संगीत प्रशंसनीय है, और अरिजीत सिंह और एलिसा मेंडोंसा की आवाज़ में 'काश', और यासीर देसाई की आवाज़ में 'माहेरु' मनमोहक लगते हैं. फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर औसत है और फिल्म में ठीक ठाक लगा है.
द ज़ोया फैक्टर में आपके लिए एक सरप्राइज भी रखा गया है जो की पूरी तरह से "पैसा वासूल" है और उसका खुलासा हम यहाँ नहीं करेंगे.
कुल मिलाकर, 'द ज़ोया फैक्टर' में कुछ नया पेश करने की गुंजाइश थी, मगर निर्देशक अभिषेक शर्मा उसे स्क्रीन पर ठीक से उकेर नहीं पाए और एक औसत फिल्म बना दी जो की अच्छी हो सकती थी.
बावजूद इसके, यदि आप एक साफ-सुथरी पारिवारिक कॉमेडी की तलाश में हैं तो अभिषेक शर्मा की 'द ज़ोया फैक्टर' एक बार देखी जा सकती है.