डायरेक्टर: शोनाली बोस
रेटिंग: ****
नयी दिल्ली, 2015, रात में चौधरी परिवार के घर की एक झलक दिखने के बाद, फिल्म हमें मिलवाती है अदिति चौधरी से (प्रियंका चोपड़ा), जिसे नींद नहीं आ रही है, वह उठ कर अपनी बेटी आयशा (ज़ायरा वासिम) के कमरे में जाती है, उसे आयशा की याद आ रही है. निरेन चौधरी (फरहान अख्तर) की आँख खुलती है और अदिति को अपने पास न पाकर वह उसे ढूंढते हुए हुए आयशा के कमरे में जाता है, जहाँ अदिति को दुखी हालत में आयशा के बिस्तर पर लेटा देख, वह लिविंग रूम में जाता है और टीवी देखने लगता है.
द स्काई इज पिंक आधारित है रियल लाइफ मोटिवेशनल स्पीकर और लेखक 'अदिति चौधरी' की ज़िन्दगी से.
जब फिल्म शुरु होती है तब तक आयशा दुनिया से जा चुकी होती है. कहानी को उसके नज़रिए से दिखाया गया है जो की वर्त्तमान और भूतकाल के बीच घुमती है. आयशा बताती है की कैसे उसके मां-बाप, अदिति और निरेन, जिन्हें वह प्यार से 'मूज़' और 'पांडा' बुलाती है, दोनों मिले, दोनों को प्यार हुआ, शादी हुई और कैसे आयशा का जन्म एक गंभीर बीमारी के साथ हुआ जिसका नामा है 'एस सी आई डी', जिसमे इन्सान की बिमारियों से लड़ने की क्षमता ख़त्म हो जाती है.
इस बीमारी के कारण आयशा का बोन मेरो ट्रांसप्लांट होता है, वह ठीक हो जाती है और एक हंसमुख किशोरी के रूप में हमारे सामने आती है. मगर जल्द ही खुशियों के बदल गुज़र जाते हैं, जब एक दिन एक फैमिली फंक्शन के दौरान आयशा बेहोश हो जाती है और उसके परिवार को पता चलता है की बचपन में हुए ट्रांसप्लांट के कारण आयशा को एक और लाइलाज बीमारी 'पुल्मोनरी फाइब्रोसिस' हो गयी है और उसके पास सिर्फ 4-5 साल बचे हैं.
अब आयशा को ये फैसला करना है की वह लंग ट्रांसप्लांट करवाना चाहती है या नहीं, जो की उम्र 10 साल तक बढ़ा सकता है. मगर आयशा का सवाल है 18 साल की उम्र में मरने से 28 की उम्र में मरना कैसे आसान होगा? वह इसके लिए इनकार कर देती है और शुरु होती है एक परिवार की कहानी जो की अपनी बेटी की ज़िन्दगी के बचे हुए हर एक पल को यादगार बनाना चाहता है.
द स्काई इज़ पिंक, बॉलीवुड की आम तौर पर दिखने वाली ड्रामा फिल्मों में से नहीं है. यह फिल्म आपके दिल तक पहुंचती है. चौधरी परिवार और आयशा की कहानी आपको अपनी ज़िन्दगी की तरफ एक अलग नजरिये से देखने पर मजबूर करती है, आपके पास जो कुछ भी है, जैसा भी उसकी अहमियत समझाती है.
शोनाली बोस ने इस फिल्म से साबित किया है की वह एक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार विजेता क्यूँ हैं. फिल्म का स्क्रीनप्ले शुरुआत से ही इमोशनल है मगर बीच - बीच में अदिति, निरेन और उसके परिवार की मजेदार केमिस्ट्री आपको हंसाती भी ख़ूब है, लेकिन फिर इमोशनल भी कर देती है. हालांकि कुछ जगह यह इमोशनल एंगल थोड़ा खिंचा हुआ लगता है.
यह फिल्म देख का रपको राजेश खन्ना के डायलाग 'बाबुमोशाय, ज़िन्दगी लम्बी ही नहीं बड़ी भी होनी चाहिए' की याद ज़रूर आएगी क्यूंकि आयशा का मूल मंत्र यही है की जब तक जियो, ख़ुशी से जियो.
कलाकारों की बात करें तो सभी अपने - अपने किरदारों में परफेक्ट हैं. प्रियंका, फरहान, ज़ायरा और रोहित, सभी ने इन किरदारों को परदे पर जिया है और महसूस किया है. जैसी - जैसी फिल्म की कहानी आगे बढती है, दर्शक चौधरी परिवार के सफ़र से खुद को जोड़ कर, ज़िन्दगी के उनके जज्बे और जिंदादिली को महसूस कर पाते हैं, जो की बतौर डायरेक्टर शोनाली बोस के लिए बहुत बड़ी कामयाबी है.
प्रियंका चोपड़ा, अदिति के किरदार में अपनी बेटी का हर पल यादगार बनाने के लिए दृढ़ एक माँ के किरदार में बेहतरीन हैं. फरहान अख्तर, एक आदर्श पति और पिता, निरेन के तौर पर हर सीन में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहते हैं.
आयशा चौधरी के किरदार में जायरा वसिम हंसमुख लगी हैं और आयशा के भाई 'ईशान' के किरदार में रोहित सराफ भी एक दम परफेक्ट हैं. खासकर आयशा और इशान की भाई - बहन की जोड़ी और केमिस्ट्री भी बेहद मजेदार और भावुक करने वाली है.
फिल्म का संगीत अच्छा और कहानी को सहारा देता है. अदिति और निरेन के रोमांस पर फिल्माया गया गाना 'दिल ही तो है' मधुर और आनंदमय है.
फिल्म का क्लाइमेक्स कैसा है यह आपको आयशा के पेट डॉग का नाम पूरी तरह समझा देगा, जो की है 'रोलो', या कहें की 'रो लो'. फिल्म देखने जाएँ तो रुमाल साथ रखें, ख़ासकर अगर आप औरत हैं तो. क्लाइमेक्स हमें असली चौधरी परिवार और आयशा से भी मिलवाता है जिसे देखने के लिए एंड क्रेडिट्स तक ज़रूर रुकें.
कुल मिलाकर, चौधरी परिवार की कहानी और उनके जज्बे को देखना ज़रूर बनता है. उनका सफ़र, उतार - चढ़ाव, और ज़िन्दगी के हर पल को खुल कर जीने का जज़्बा थिएटर से निकलने के बाद भी आपके साथ रहता है. ज़रूर देखें.