डायरेक्टर: तुषार हिरानंदानी
रेटिंग: 3.5
भूमि पेड्नेकर और तापसी पन्नू को 'सांड की आँख' में 60 साल की औरतों के किरदार निभाने और निर्माताओं को यह रोल उस उम्र की अभिनेत्रियों को न देने के लिए काफी खरी खोटी सुन्नी पड़ी थी. आखिर फिल्म रिलीज़ हो गयी है तो आईये देखते हैं की इस खरी खोटी का निर्मातओं और अभिनेताओं को फायदा हुआ या नहीं.
सांड की आँख की कहानी असल ज़िन्दगी में शूटर दादी और रिवाल्वर दादी के नाम से प्रसिद्द चन्द्रो और प्रकाशी तोमर के जीवन से प्रेरित है जिन्होंने 60 साल की उम्र के बाद शूटिंग में अपने टैलेंट को पहचाना और आगे चल कर सैंकड़ों मेडल और प्रतियोगिताएँ जीती.
कहानी शुरु होती है 1990 के दशक के अंत से जहाँ चन्द्रो (भूमि पेड्नेकर) और प्रकाशी तोमर (तापसी पन्नू) अपने पतियों से झूठ बोल कर पहली बार एक शूटिंग प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के लिए जाती हैं और फिल्म हमें ले जाती है फ़्लैशबैक मे 1950 के दशक में, प्रकाशी पहली बार शादी के बाद अपने ससुराल आती है और उसकी और चन्द्रो की जल्द ही गहरी दोस्ती हो जाती है, वो दोस्ती जो इन दोनों को आने वाले ज़िन्दगी के कई कठिन और बेहद मुश्किल सालों से गुजरने में मदद करती है.
बुढापे में एक दिन यह दोनों दादियाँ इत्तेफाकन अपनी निशानेबाज़ी की प्रतिभा को पहचानती हैं जब उनका एक रिश्तेदार, डॉक्टर यशपाल (विनीत कुमार सिंह) काफी समय के बाद शूटिंग चैंपियन्स की तलाश में अपने गाँव वापस आता है.
अब चन्द्रो और प्रकाशी के परिवार में औरतों को सिर्फ खेतों में काम करने की, गाय को दूध निकलने की इजाज़त है, बहार जाने की नहीं तो इसलिए दोनों छुपते - छुपाते शूटिंग प्रैक्टिस के लिए लगातार घर से बहार जाती हैं और आखिरकार प्रतियोगिताएं के लिए. इसके बाद जो होता है वह चन्द्रो और प्रकाशी के इस रोमांचक सफ़र को दर्शाता है और यह सफ़र ऐसा है जो आपके चेहरे पर एक मुस्कान ज़रूर ले आएगा.
तुषार हिरानंदानी की सांड की आँख बॉलीवुड की आम तौर पर बनने वाली फीमेल-सेंट्रिक फिल्मों की तरह महिला सशक्तिकरण के नाम पर कुछ भी नहीं परोसती नज़र नहीं आती, बल्कि यह फिल्म भारत के पुरुष प्रधान गाँवों में होने वाले पक्षपात और अन्याय को दर्शाती नज़र आती है और आपको असलियत से रूबरू करवाती है जो की दिल पिघलाने वाला है.
चन्द्रो और प्रकाशी तोमर की कहानी में सबसे प्रेरणादायक बात है ज़िन्दगी के प्रति दोनों का नजरिया, मुसीबतों, तकलीफों और बुरे से बुरे हालात में यह दोनों हमेश उम्मीद से भरपूर और चेहरे पर एक मुस्कान लिए नज़र आती हैं. ये शूटर दादियाँ बॉलीवुड में 80 और 90 के दशक की फिल्मों में नज़र आने वाली अबला नारियां नहीं है, दशक तो 90 ही है मगर नारियां मज़बूत हैं.
तापसी पन्नू और भूमि पेड्नेकर ने अपने किरदारों को पूरी श्रेष्ठता से निभाया है, उनका अजीब सा मेक अप शायद आपको पसंद न आये मगर दोनों की एक्टिंग इस कमी को पूरा कर देती है. विनीत कुमार सिंह दोनों के सारथी के रूप में बढ़िया लगे हैं और प्रकाश झा और पवन चोपड़ा गाँव के रूढ़िवादी पुरुषों के रूप में भी ख़ूब जमे हैं.
फिल्म का स्क्रीनप्ले भी हर कदम पर आपको बाँध कर रखता है और म्यूजिक भी दिलचस्प है जो कहानी के साथ चलता है. डायरेक्टर तुषार हिरानंदानी ने बतौर निर्देशक अपनी पहली फिल्म में 60 साल की दो दादियों की प्रेरणात्मक कहानी को अच्छे से पेश किया है और दिखाने में सफल रहे हैं की अपने सपनों को पूरा करने के लिए कोई भी उम्र गलत नहीं होती, जहाँ चाह है वहां राह बन ही जाती है.
कुल मिलकर सांड की आँख में निर्देशक तुषार हीरानंदानी का तीर एकदम सटीक निशाने पर लगा है और भूमि पेड्नेकर और तापसी पन्नू ने फिल्म के लिए जितनी खरी खोटी सुनी उसका आखिर दोनों को मीठा फल मिला है और दोनों ने अपन्तिंग परफॉरमेंस से सबके मुंह बंद कर दिए हैं. फिल्म के लिए वर्ड ऑफ़ माउथ भी बढ़िया है जो की इसके लिए फायदेमंद साबित होगा और निर्माताओं की दिवाली बढ़िया रहने वाली है. ज़रूर देखें.