निर्देशक: मिलाप जावेरी
रेटिंग: *1/2
मिलाप जावेरी की 'मरजावां' कहानी है एक गैंगस्टर ' रघु' (सिद्धार्थ मल्होत्रा) की जो मुंबई के एक माफिया डॉन 'नारायण अन्ना' (नासर) जो की वेश्यावृत्ति के धंधे में भी जमा हुआ है उसका दायाँ हाथ है. नारायण का बेटा विष्णु (रितेश देशमुख) अपने अजीबो गरीब वन-लाइनर्स के ज़रिये शैतान का अवतार होने का दावा करता है और इस शैतान को बिलकुल भी पसंद नहीं है.
एक दिन इस पत्थर दिल रघु की मुलाकात होती है ज़ोया (तारा सुतारिया) से जो बोल नहीं सकती मगर फिर भी काफी कुछ देती है रघु को जोया से प्यार हो जाता है और ज़ोया को लगता है कि वह रघु को एक अच्छा आदमी बना सकती है. लेकिन विष्णु जो रघु से नफरत करता है उसकी प्रेम कहानी को पूरा नहीं होने देना चाहता और यह 3 फुट लंबा शैतान रघु और जोया की ज़िन्दगी में एक तोफ्फान लेकर आता है और आगे जो होता है वो इस रिवेंज - ड्रामा फिल्म की कहानी है.
निर्देशक और लेखक मिलाप जावेरी की मरजावां 80 के दशक की बॉलीवुड फिल्मों को उठा कर आज के ज़माने में परोसी गयी डिश है जो की गलत समय पर रिलीज़ कर दी गयी है. फिल्म भयानक वन-लाइनर्स से भरी हुई है और किरदार स्क्रीन ज़्यादातर समय हर जगह कानून की धज्जियां उड़ाते हुए मुंबई में अपनी बंदूक की नोक पर घूमते नज़र आते है जिसे देख कर लगता है ये आज का नहीं बल्कि 1980 - 90 के दशक का मुंबई है और जब इतना कुछ है तो 80 के दशक की ही तरह पुलिस भी हमेशा देर से ही आती है.
फिल्म की कहानी धीमी, उबाऊ और एक समय आते - आते असहनीय हो जाती है वो भी इस तरह की इंटरवल में आपको लगेगा की फिल्मख़त्म हो गयी मगर ऐसा होता नहीं है और आपको इसे एक और घंटे के लिए झेलना पड़ता है.
सिद्धार्थ मल्होत्रा के रघु को देख कर लगता है की वह अमिताभ बच्चन की नकल करने की कोशिश कर रहा है. हालांकि सिद्धार्थ ने 6 फूट के गुंडे रघु जिसका दिल एक लड़की पिघला देती है उसके साथ इन्साफ करने की पूरी कोशिश की है मगर यह उनकी गलती नहीं है की किरदार ही 80 के दशक के हिसाब से लिख गया है जो अज के समय में बेअसर लगता है.
रितेश देशमुख फिल्म के खलनायक विष्णु के रूप में कुछ दृश्यों में बढ़िया लगे हैं लेकिन उनके गंभीर वन-लाइनर्स सीरियस न लग कर कई दृश्यों में हास्यात्मक लगते हैं और उनका किरदार न चाहते हुए भी मजाकिया लगने लगते है जिसपे आपको हंसी आएगी
तारा सुतारिया 'ज़ोया' के किरदार में खूबसूरत दिखती हैं और उनका अदाकारी भी सराहनीय है मगर उनके किरदार के पास ज्यादा कुछ करने को है नहीं और रकुलप्रीत सिंह का काम एक हॉट बार डांसर आरज़ू की भूमिका में डांस फ्लोर पर सेक्सी डांस दिखाना और बीच-बीच में लोगों पर चिल्लाना है. बाकी किरदार फिल्म में मात्र खाली स्क्रीन स्पेस भरने का काम करते हैं.
मरजावां की सबसे बढ़िया बात है फिल्म का म्यूजिक. अरिजीत सिंह और जुबिन नौटियाल की आवाजों में 'तुम ही आना' और 'थोडी जगह' मनमोहक हैं हालांकि फिल्म के रीक्रिएटेड गाने औसत हैं.
कुल मिलाकर, मरजावां अपने ट्रेलर पर पूरी तरह से खरी उतरती है. निर्देशक मिलाप ज़वेरी की 2 घंटे और 15 मिनट की लंबी फिल्म हद से ज्यादा ड्रामा और हास्यात्मक डायलॉग्स से भरी एक खोखली फिल्म लगती है. तो यदि आप 80 के दशक बॉलीवुड को एक बार फिर नाटकीय रूप से देखना चाहते हैं तो मरजावां ज़रूर देखें और अगर आप भी किसी से बदला लेना चाहते हैं तो उन्हें मरजावां ज़रूर दिखाएँ.