कास्ट: आदिल खान, सादिया खान
रेटिंग: **1/2
विधु विनोद चोपड़ा की शिकारा 80 के दशक के अंत से शुरु होती जब कश्मीर घाटी में में साम्प्रदायिक तनाव धीरे - धीरे ज़ोर पकड़ रहा था. स्वभाव से कवी शिव (आदिल खान) और उसकी भोली-भाली पत्नी शांति (सदिया खान) को यही लगता है की ये तनाव जल्द ही कम हो जाएगा और हालात पहले की तरह सामान्य हो जाएँगे. कुछ और साल बीत जाते हैं और ये तनाव धीरे - धीरे हिंसा में तब्दील हो जाता है और शिव और शांति के पास लाखों कश्मीरी पंडितों की ही तरह दो रास्ते बचते हैं कश्मीर में रहकर अपनी जान खतरे में डालना या फिर अपना सब कुछ छोड़ कर जन बचा कर कश्मीर से निकल जाना और वे दूसरा रास्ता चुनते हुए 19 जनवरी 1990 की रात को लाखों कश्मीरी पंडितों की तरह पलायन कर जाते हैं.
विधु विनोद चोपड़ा ने शिकारा के ज़रिये कश्मीरी पंडितों के दर्द और साहस दोनों को परदे पर लाने की कोशिश की है. उनकी फिल्म 90 के दशक के कश्मीर और वहां के बिगड़ते हालात को बखूबी दर्शाती है. निर्देशक ने एक शादीशुदा जोड़े की प्रेम कहानी के ज़रिये कश्मीर में 90 के दशक में पंडितों के साथ इस्लामिक कट्टरपंथियों द्वारा हुई हिंसा और नाइंसाफी को लोगों के सामने साफ़ सुथरे तरीके से लाने का प्रयास किया है और वे उसमे कुछ हद तक सफल भी हुए हैं.
शिकारा की पटकथा इंटरवल से पहले ज़्यादा आकर्षक और दिलचस्प है बजाये के इंटरवल के बाद. फर्स्ट हाफ में फिल्म धीरे - धीरे आपको बाँध लेती है और आगे आखिर क्या होगा ये जानने की उत्सुकता बनती है लेकिन दूसरे हाफ में फिल्म एक नया मोड़ ले लेती है और शिव और शांति की प्रेम कहानी आस - पास ही घूमती रहती है और यहीं फिल्म टॉपिक से हट कर भटक जाती है.
एक्टिंग की बात करें तो शिव के रूप में आदिल खान सहज लगे हैं और शांति के रूप में सादिया खान ने भी काफी अच्छा प्रदर्शन किया है. सादिया एक साफ़ दिल की भोली-भाली शांति के किरदार में असली लागती हैं हालांकि आदिल की एक्टिंग बढ़िया है लेकिन वह उन्हें अपने एक्सप्रेशन्स पर थोड़ा काम करने की ज़रुरत है.
संगीत के डिपार्टमेंट में ए आर रहमान और सन्देश शांडिल्य ने शिकारा को अच्छे अंक दिलवाए हैं. फिल्म का म्यूज़िक और बैकग्राउंड स्कोर मधुर है और इरशाद कामिल के बोल और ए आर रहमान का संगीत मिलकर आपके कानों में गूंजते रहते हैं.
कुल मिलाकर विधु विनोद चोपड़ा की शिकारा एक प्रेम कहानी है जो कुछ - कुछ हिस्सों में अच्छी लगती है. फिल्म में कई सत्य घटनाएँ देखने को मिलती हैं मगर फिल्म का रोमांटिक प्लाट इसे राह से भटका देता है और कहानी कश्मीरी पंडितों की आपबीती के साथ इन्साफ नहीं कर पाती. अगर आप इस टॉपिक पर आधारित एक सीधी - सादी फिल्म देखना चाहते हैं तो इसे देख सकते हैं. अगर कश्मीर की असल कहानी देखना चाहते हैं तो निराश होंगे. विवेक अग्निहोत्री की 'द कश्मीर फाइल्स' का इंतज़ार कर सकते हैं जो की इस साल सितम्बर-अक्टूबर तक रिलीज़ होगी. खुद चुनाव करें.