निर्देशक: शूजीत सरकार
रेटिंग: *1/2
आयुष्मान के साथ 'विक्की डोनर' (2012) और अमिताभ बच्चन के साथ 'पिकू' (2015) जैसी कामयाब फ़िल्में देने के बाद शूजीत सरकार इस बार दोनों को एक साथ लेकर आये हैं उनकी स्लाइस-ऑफ-लाइफ कॉमेडी-ड्रामा फिल्म 'गुलाबो सीताबो' में | तो बिना समय गंवाए आईये जानते हैं की कैसी है गुलाबो और सिताबो की तू तू - मैं मैं
गुलाबो सिताबो की कहानी लखनऊ की जीर्ण हवेली, फातिमा महल के इर्द-गिर्द घूमती है। 80 साल से ऊपर के बुज़ुर्ग मकान मालिक मिर्ज़ा (अमिताभ बच्चन) अपनी हवेली फातिमा महल से अपने किरायेदार बांके (आयुष्मान खुर्राना) को बाहर निकालने के लिए संघर्ष कर रहा है। बच्चन ने पुराने जमींदार मिर्जा की भूमिका निभाई है, जबकि आयुष्मान ने एक कुंठित अहंकारी किरायेदार की भूमिका निभाई है। बांके और मिर्ज़ा के बीच इस हवेली को लेकर तनातनी लगी रहती है और दोनों ही फातिमा महल पाने के लिए एक दूसरे के खिलाफ योजना बनाने और साजिश रचने में संकोच नहीं करते।
एक दमदार सिचुएशनल कॉमेडी, किरदारों के बीच ठोस तालमेल, और मज़ेदार स्क्रिप्ट ये वो कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो गुलाबो सिताबो में आपको देखने को नहीं मिलती| फिल्म के ट्रेलर से शायद आपको लगा हो की अमिताभ और आयुष्मान की जोड़ी कुछ मजेदार और दिलचस्प लेकर आने वाली है मगर अफ़सोस ऐसा कुछ नहीं है | निर्देशक शूजीत सिरकार ने बीते वर्षों में शानदार काम किया है लेकिन कभी-कभी आप अतीत को नहीं दोहरा सकते हैं और इस बार ऐसा ही कुछ शूजित के साथ भी हो गया है |
सबसे बड़ी निराशा है फिल्म की कहानी जिसकी धीमी गति न सिर्फ परेशान करती है बल्कि दर्शक को यही समझ नहीं आता की आखिर फिल्म कहना क्या चाहती है | फर्स्ट हाफ में फिल्म की कहानी को काफी खींचा गया है हालांकि सेकंड हाफ में ये कुछ पटरी पर आती है मगर तब तक ट्रेन स्टेशन से निकल चुकी होती है और दर्शक का इंटरेस्ट फिल्म से हट चुका होता है ।
मिर्ज़ा के किरदार में अमिताभ बच्चन को देखना मज़ेदार है। उन्होंने अपने किरदार को बड़ी उत्कृष्टता से परदे पर उकेरा है। जिस तरह से वह चलते हैं, मुस्कुराते हैं और इस उम्र में भी जो उनकी एनर्जी है उसे देख कर सिर्फ वाह ही कहा जा सकता है | मगर शहंशाह जैसे कलाकार को फिल्म की बेहद कमज़ोर और बिना सर-पैर की कहानी फेल कर देती है |
बांके के रूप में आयुष्मान खुराना ने अपने किरदार के साथ इन्साफ करने की पूरी कोशिश की है। वह उत्तर प्रदेश में एक निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार में बहुत सारी जिम्मेदारियों वाले एक व्यक्ति किरदार में अच्छे लगे हैं और उनका चॉकलेट बॉय चरम यहाँ भी चल ही जाता है |
फिल्म की सहायक कास्ट भी काफी मज़बूत है जिसमें विजय राज़, बृजेन्द्र काला, पूर्णिमा शर्मा, श्रृष्टि श्रीवास्तव और फ़ारुख जफ़र शामिल हैं | ये सभी फिल्म की औंधे मुंह गिरी कहानी को उठाने की पूरी कोशिश करते हैं मगर हर कोशिश व्यर्थ है।
जूही चतुर्वेदी की कहानी बुद्धिमान, मज़ाकिया और मज़ेदार हो सकती थी, लेकिन जितनी सुस्ती इसे चढ़ी है उसके उतरते- उतरते फिल्म ही ख़त्म हो जाती है और दर्शक अपने सर खुजाते रह जाते हैं | इसे वह बनने से रोकती है जो यह हो सकता था। शांतनु मोइत्रा का संगीत औसत हैं और कथा के साथ ठीक लगता है |
कुल मिलाकर, गुलाबो सिताबो व्यंग्य और सिचुएशनल कॉमेडी पर शूजित सरकार का एक असफल प्रयास है। शूजीत ने अपने दिमाग में जो कल्पना की थी, उसे पर्दे पर लाने में असफल रहे हैं और यह निराशाजनक है। फिर भी, फिल्म में कुछ ऐसे पल हैं जो आपको हँसाते हैं और इसकी सबसे अच्छी बात है अमिताभ और आयुष्मान का प्रदर्शन| अमिताभ और आयुष्मान के फैन्स हैं तो निराश होंगे |