कास्ट: संजय दत्त, आलिया भट्ट, आदित्य रॉय कपूर, जीशु सेनगुप्ता, प्रियंका बोस, मकरंद देशपांडे, गुलशन ग्रोवर
रेटिंग: *1/2
प्लेटफार्म: डिज़नी प्लस हॉटस्टार
आखिर 20 साल बाद महेश भट्ट ने निर्देशन में वापसी की है तो कुछ अच्छा देखने को मिलेगा, अगर आपने भी कुछ ऐसा सोचा था तो आपके हाथ निराशा लगेगी | एक दौर था जब महेश भट्ट की फिल्मों का मतलब होता था दमदार सिनेमा, चाहे वह डैडी को, नाम हो, सारांश, आशिकी, दिल है की मानता नहीं या फिर उनकी 1999 में रिलीज़ हुई फिल्म कारतूस | 20 साल बाद जब उन्होंने निर्देशन में वापसी की घोषणा की तो फैन्स उत्सुक हो उठे लेकिन जिसकी उम्मीद थी उन्हें मिला उसका उलट |
आर्या (आलिया भट्ट) जल्द 21 साल की होने वाली है और 21 वर्ष का होने से पहले वह कैलाश पर्वत पर जाना चाहती है | इसका कारण है उसकी स्वर्गीय मां जिसकी अंतिम इच्छा ये थी की आर्या अपना 21वां जन्दिम कैलाश पर मनाये | आर्या की मां ने अपनी वसीयत में ये लिखा था की 21 साल की होते ही आर्या अपनी खानदानी जायदाद की मालकिन बन जाएगी और कुछ लोग हैं जो नहीं चाहते की ऐसा हो जिनमें उसके पिता योगेश देसाई (जीशु सेंगुप्य्ता) और मौसी नंदिनी (प्रियंका बोस) भी शामिल हैं |
आर्या की जान के पीछे कई बड़े लोग पड़े हैं और इनमें मुख्य है बाबा ज्ञानप्रकाश (मकरंद देशपांडे) जिसके भक्तों में उसका परिवार भी शामिल है और उसे पागल करार देकर उसकी जायदाद पर कब्ज़ा करना चाहता है | इस बात की भनक लगने पर आर्य घर से भाग जाती है और अपने प्रेमी विशाल (आदित्य रॉय कपूर) के साथ पहुँचती है रवि के पास जिसकी पत्नी पूजा की 3 महीने पहले मौत हो गयी है और वो सदमे में है | रवि अब टैक्सी सर्विस चलाता है जिसकी आखिरी बुकिंग पूजा ने ली थी और बुकिंग कराने वाली थी आर्या | आर्या को सही-सलामत कैलाश पहुंचाना ही रवि अपना मकसद बना लेता है और इसके बाद क्या होता है वो है कहानी सड़क 2 की |
निर्देशन में 20 साल बाद वापसी करके अगर महेश भट्ट ने कुछ किया है तो वह है निराश | फिल्म की कहानी समझ तो आती है लेकिन उसे देखने में मज़ा बिलकुल नहीं आता | स्क्रीनप्ले कभी किसी दिशा में तो कभी किसी दिशा में निकल पड़ता है और देखने वाला अपना सर खुजाता रह जाता है की आखिर ये सड़क किधर जाना चाहती है |
एक्टिंग की बात की जाए तो यहाँ भी ज़िक्र करने के लिए कुछ ख़ास नहीं है | उड़ता पंजाब, हाईवे और राज़ी जैसी फिल्मों के बाद आलिया को एक ठन्डे किरदार में देखना अच्छा नहीं लगता | संजय दत्त एक बार फिर रवि के रूप में अच्छे लगे हैं | उनकी एक्टिंग बढ़िया है मगर वे अकेले फिल्म को कितना ही संभाल पाएंगे | आदित्य रॉय कपूर का किरदार विशाल कंफ्यूज़ नज़र आता है और उसके साथ - साथ दर्शकों को भी नहीं पता की आखिर वह स्क्रीन पर क्यूँ है | सबसे अजीब बात ये है की हर किरदार किसी न किसी मानसिक पीड़ा से ट्रस्ट है जो की और भी अजीब लगता है |
जीशु सेनगुप्ता आर्य के पिता के नेगेटिव किरदार में अच्छे लगे हैं और उनके रोल से जुड़ा ट्विस्ट भी बढ़िया है | एक उन्ही का किरदार है जो फिल्म में चाहे अपने ही दृश्यों को मगर देखने लायक बनाता है | वहीँ मकरंद देशपांडे बाबा ज्ञानप्रकाश के रूप में डरावने तो छोड़िये बेढंगे और हास्यास्पद लगे हैं | उनका किरदार दर्शक को सीरियस मूड में ले जाने के बजाये हंसाने पे मजबूर कर देता है |
महेश भट्ट की फिल्मों की हमेशा एक खासियत रही ही है और वो है फिल्म का संगीत मगर सड़क 2 यहाँ भी फेल हो गयी है |
कुल मिलाकर सड़क 2 एक दिशाहीन फिल्म है जो कहाँ से कहाँ जाने के लिए निकली थी इसका इल्म शायद इस फिल्म से जुड़े किसी भी शख्स को नहीं है, न निर्देशक को, न लेखकों को, न कलाकारों को और न ही दर्शकों को | अगर आप महेश भट्ट या संजय दत्त, अलिया भट्ट, आदित्य रॉय कपूर के फैन हैं और आपके दिन में 1 घंटा 57 मिनट फ़ालतू हैं तो ये फिल्म ज़रूर देखें | 1.5 स्टार संजय दत्त और जीशु सेनगुप्ता के लिए |