निर्देशक: रणदीप झा
रेटिंग: ***
प्लेटफॉर्म: इरोस नाऊ
'हलाहल' यानी किसी चीज़ का ज़हर हो जाना | ज़ी5 की यह फिल्म शिक्षा को कारोबार बनाने वाले उन माफियाओं की तरफ इशारा करती है जिनके कारण शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है | अखबारों में शिक्षा घोटाले रोजमर्रा की खबर हो चुके हैं, कहीं शिक्षा भर्ती घोटाला तो कहीं व्यापम घोटाला, कहीं नकल कराने वाले रैकेट तो कहीं मेडिकल और इंजीनियरिंग में एडमिशन दिलाने के रैकेट का आए दिन खुलासा होता ही रहता है।
'हलाहल' फिल्म की कहानी गाज़ियाबाद राजमार्ग पर एक घटना से शुरू होती हैं, जहां अर्चना शर्मा जो एक मेडिकल छात्र है, एक कोचिंग अकादमी में एक मेडिकल शिक्षक आशीष (चेतन शर्मा) को बचाने की कोशिश कर रही है जो कि गुंडों से अपना पिछा छूड़वा कर भाग रहा है, लेकिन अर्चना के साथ एक बहुत बड़ा हादसा हो जाता है| वह ट्रक की चपेट में आ जाती है और उसकी मौत हो जाती है, उस दुर्घटना के बाद आशीष वहां से भाग जाता है और अर्चना को मृत पाकर गुंडे उसके शरीर को दबा देते हैं।
इसके बाद कहानी डॉ. शिव शर्मा (सचिन खेडेकर) के क्लिनिक से शुरू होती है, जहां एक राजनेता उनसे क्लिनिक की संपत्ति छोड़ने का अनुरोध करता है| लेकिन इस बीच, डॉ. शिव को गाज़ियाबाद पुलिस से फोन आता है कि उनकी बेटी अर्चना ने आत्महत्या कर ली है। जब वह पुलिस स्टेशन पहुंचता है, तो उसे अर्चना आत्महत्या पर संदेह होता है | कई खुलासों के बाद उसे यकीन हो जाता है की अर्चना की हत्या हुई है जिसके बाद मामले में अपने हाथों में लेते हुए वह खुद ही अपनी बेटी की मृत्यु का सच पता लगाने निकल पड़ता है |
इस बीच, वह पुलिस इंस्पेक्टर यूसुफ (बरुन सोबती) से मदद लेता है, जो है एक भ्रष्ट पुलिस अधिकारी और पैसे के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। पुलिस-डॉक्टर की यह जोड़ी अर्चना की हत्या के पीछे की सच्चाई का पता लगाने की पूरी कोशिश करती है, लेकिन चीजें तब और गंभीर हो जाती है, जब अर्चना शर्मा की हत्या का चश्मदीद आशीष ही मारा जाता है। अगर आप अर्चना की मौत के पीछे के वास्तविक सच को जानना चाहते हैं, तो आपको यह शानदार फिल्म देखनी होगी जो हमारी शैक्षिक पद्धति की भ्रष्टाचार प्रणाली के बारे में लोगों की बताती है।
रणदीप कुमार झा, जो पेशे से एक अभिनेता और सहायक निर्देशक हैं, उन्होंने 'हलाहल' फिल्म के द्वारा निर्देशक की सीट पर भी कब्जा कर लिया है। रणदीप ने शानदार ढंग से अपने निर्देशन कौशल का प्रदर्शन किया है और एक जबरदस्त कहानी लोगों के सामने प्रस्तुत की है। गंभीरता के साथ-साथ यह फिल्म आपको कुछ दृश्यों में खूब हंसाती भी है।
फिल्म को ज़ीशान कादरी ने लिखा है, जिन्होंने गैंग्स ऑफ वासेपुर 1 और 2, होटल मिलन जैसी फिल्मों के लिए लोकप्रियता हांसिल की है। कहानी इतनी अच्छी तरह से लिखी गई है कि आपको पूरी फिल्म में नायक या खलनायक की कमी नही खलेगी। इसकी कहानी आपको हर गुज़रते दृश्य के साथ जोड़ के रखती है।
एडिटिंग के मोर्चे पर नितेश भाटिया ने अपना बहुत ही अच्छा रोल निभाया है। इसे देखते समय कुछ समय के लिए भी ऐसा नहीं लगता की कहानी बेपटरी हो रही है साथ ही न ही न ही इसकी कहानी आपको खिंची हुई नज़र आएगी।
प्रदर्शन की बात करें, तो हमारे एक तरफ सचिन खेड़ेकर हैं और दूसरी तरफ बरुण सोबती। अपने बेबाक प्रदर्शन के लिए जाने जाने वाले सचिन खेडेकर ने एक बार फिर से पर्दे पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। अभिनेता ने दु:खी-पीड़ित की भूमिका को बहुत ही अच्छे तरीके से चित्रित किया है, जो कि पिता की पीड़ा को कम करने के लिए बाहर निकलता है और अपनी बेटी की मौत का बदला लेता है।
बरुन के बाद यूसुफ ने एक भ्रष्ट पुलिस वाले का किरदार वाकई ज़बरदस्त निभाया है। इनके अलावा, मनु ऋषि चड्ढा फिल्म में एक सरप्राइज पैकेज से कम नहीं हैं, इन्होने अपनी छोटी सी भूमिका के साथ न्याय किया है| पूर्णेंदु भट्टाचार्य ने भी डीन आचार्य की भूमिका में अच्छा प्रदर्शन किया है। बाकी स्टार कास्ट ने भी फिल्म को आकर्षक बनाने में समान रूप से अपना योगदान दिया है।
इस फ़िल्म की सिनेमाटोग्राफी बहुत ही खास है इससे देखते हुए आप थोड़े समय के लिए भी अपनी नज़र स्क्रीन से हटा नही पाएगें। फ़िल्म देखने के बाद हर सीन सिनेमाटोग्राफी के कारण आपको याद रहेगा। फ़िल्म का म्यूजिक, थीम से जुड़ा रहता है जो आपको फिल्म से बांध कर रखता है और एक बार भी आपको डिस्टर्ब नही करता।
कुल मिलाकर कहा जाए तो फिल्म 'हलाहल' एक कड़वा घूंट है, भले ही आप इसे नहीं चाहते हैं, लेकिन आपको इसे अपने गले से नीचे उतारना अच्छा रहेगा। बरुण का चरित्र संवाद निश्चित रूप से आपके चेहरे पर एक मुस्कान लाएगा| 90 मिनट की यह फिल्म आपका कीमती समय बर्बाद करने वाली नहीं है, और फिल्म देखने के बाद भी, यदि आप अंत से संतुष्ट नहीं हैं, तो याद रखें कि अमृत पाने के लिए भगवान शिव को भी विष पीना पड़ा था।