निर्देशक: संदीप वर्मा,
रेटिंग: 3.5
फिल्म निर्देशक संदीप वर्मा ने फ़िल्म 'मंजूनाथ' के माध्यम से उस वास्तविक घटना को उठाया है, जिसमें 2005 में यूपी राज्य में एक ईमानदार इंडियन ऑयल के सेल्स मैनेजर मंजूनाथ की इसलिए हत्या कर दी गई थी क्योंकि उन्होंने एक मिलावटी पेट्रोल बेचने वाले व्यक्ति के पेट्रोल पंप का लाइसेंस रद्द करने के लिए कहा था।
फिल्म यूपी के लखनऊ, लखीमपुर खीरी, सीतापुर जैसे क्षेत्र के आस-पास घूमती है। जहाँ एक इंडियन ऑयल सेल्स मैनेजर को उसकी ईमानदारी से काम करने का नतीजा बेहरमी से मौत के रूप में भुगतना पड़ता है। फिल्म के चरित्रों समेत, निर्देशन और परिस्थितियां स्क्रीनप्ले बेहद साधारण लेकिन गंभीर और उम्दा है, जिसमें हर दृश्य को बेहद सरलता से दिखाया गया है। जहाँ फिल्म में भ्रष्टाचार और शक्तिशाली असामाजिक तत्वों के सामने असहाय व्यक्ति के दर्द को बेहद प्रभावी तरीके से दिखाया गया है वहीं अपने-बेटे के वियोग में न्याय की आस लगाए माता-पिता के दृश्य आँखें नम कर देते है।
फिल्म की कहानी एक 27 वर्षीय ईमानदार, होनहार और मासूम मंजूनाथ (साशो सतीश सारथी) की है। जो आईआईएम से पढ़ाई करने के बाद लखीमपुर खीरी में इंडियन ऑयल कार्यकारी का पद संभालता है। अपने चारों तरफ चल रहे तेल की चोरी, मिलावटखोरी और भ्रष्टाचार जैसे काम होते देखता है, और साथ ही वह उन मासूम और गरीब लोगों की परिस्थतियों से भी वाकिफ है जो मुश्किल से अपनी जीविका चलाते है। लेकिन जब वह इस असामाजिक कार्य को रोकने और उसमें हस्तक्षेप करने की कोशिश करता है तो वह ना सिर्फ़ आपने आप को इस लड़ाई में अकेला और असहाय पाता है बल्कि लोगों द्वारा उसकी सुनवाईं करने के बजाय उसे मानसिक तौर पर बीमार भी बता दिया जाता है। वह चीखना चाहता है, चिल्ला कर अपनी वेदना प्रगट करना चाहता है, लेकिन वह ऐसा भी नही कर पाता।
वह हार मान लेता है वापिस अपने घर बैंगलोर चला जाता है। लेकिन उसकी ईमानदारी और आत्मसम्मान उसका पीछा नही छोड़ता। अब वह दोबारा यूपी में लखीमपुर खीरी में अपनी जॉब संभालता है। वह अपने आप को मजबूत करने और हौंसला देने के लिये भागवद गीता पढता है, और तेल माफ़िया गोलू (यशपाल शर्मा) के खिलाफ़ फ़िर से जमकर खडा हो जाता है। क्या अब वह इन तेल माफियाओं से जीत पाता है या नही इसका खुलासा फ़िल्म का अंत किस तरह करती है इसके लिये आपको फ़िल्म देखनी होगी।
अगर फिल्म को मनोरंजन के नजरिये से देखा जाए तो इस मामले में फ़िल्म विफल साबित होती है। खास कर फिल्म के शुरूआती कुछ 35-40 मिनट यह काफी उबाऊ महसूस होती है। लेकिन जैसे-जैसी फिल्म आगे बढ़ती जाती है फिल्म के चरम तक पहुँचने का इंतज़ार होने लगता है और एक ऐसा वक़्त आता है जब दर्शक अपनी आँखे नम होने से रोक नही पाते। एक जवान और होनहार बेटे की मृत्यु के बाद गहन दुख को झेल रहे माता-पिता की परिस्थितियां बेहद ह्रृदय विदारक है।
अगर फिल्म में अभिनय की बात की जाए तो फ़िल्म के चरित्र अभिनेता कम और वास्तविक्त चरित्र ज्यादा प्रतीत होते है। हर एक किरदार अपने आप में बेहद उम्दा और गंभीर प्रस्तुति देता है। फिल्म का मुख्य चरित्र साशो सतीश सारथी है, जिनके अभिनय को देख कर आपको एक बार दोबारा से सोचना पड़ता है कि ये सिर्फ़ एक कलाकार है या वह मासूम व्यक्ति जिसके साथ यह घटना घटी थी। वहीं उनकी माँ के किरदार में सीमा विश्वास बेहद उम्दा है।
वहीं इन कलाकारों के अलावा जिनका नाम खास तौर पर लिया जाना चाहिए वह है यशपाल शर्मा उन्होंने गोलू के रूप में एक उत्तर प्रदेश के तेल माफीया की श्रेष्ट भूमीका निभाई है वह जिस भी फ़िल्म के दृश्य में आते है दर्शकों को बाँध देते है। उनके अलावा फिल्म के अन्य कलाकार जैसे अंजोरी अलघ, फैज़ल राशिद ने भी अपने हिस्से का काम अच्छे तरीके से किया है।
फिल्म का संगीत फ़िल्म की परिस्थितियों से बेहद मिलता-जुलता और संजीदा है। फिल्म का गाना 'मस्त हूँ मैं' जाल- द बैंड की प्रस्तुति है और जो बाहर की ह्रृदय विदारक परिस्थितियां में खुद को तसल्ली देने का काम करता है। इसके अलावा 'भोली भाली सी आँखे' दिल को छूने वाला गाना है और फिल्म की परिस्थितियों को बखूबी बयान करता है।