निर्देशक: अमन सचदेवा
स्टार : 2
अमन सचदेवा द्वारा निर्देशित 'कुक्कू माथुर की झंड हो गई' की शैली रोमांटिक कॉमेडी है। हालाँकि इसके पोस्टर देख कर कुछ हद तक यह गलत फहमी हो सकती है कि फिल्म अपारिवारिक और एडल्ट कॉमेडी है। लेकिन फिल्म देखने के बाद आपकी यह गलत फहमी दूर हो जाती है। फिल्म सीधे तौर पर एक सीधी सपाट दोस्ती पर आधारित कहानी है। जो बेहद सरल, सीधी और सपाट है।
एकता कपूर ने फिल्म के शीर्षक 'कुक्कू माथुर की झंड' को दिल्ली के युवाओं पर सर्वे कर के चुना है। जिसमें कुक्कू की हर जगह झंड होती है। फिर चाहे वह पढ़ाई का मामला हो, बिजनेस का या इश्क का।
फिल्म की कहानी एक माध्यम वर्गीय कुकू माथुर और उसके दोस्त (सिद्धार्थ गुप्ता), रॉनी गुलाटी (आशीष जुनेजा) की है। जो 12वीं के छात्र है। जिनमें से आशीष का तो पारिवारिक साडी का कारोबार है। लेकिन कुक्कू एक बिना माँ का बेटा है, जिसके पिता एक छोटी सी नौकरी में है। कुक्कू की एक छोटी बहन भी है, और घर के कार्यों की सारी जिम्मेवारी कुक्कू पर है।
घर में खाना बनाते-बनाते वह एक अच्छा कुक बन जाता है, और उसकी यही जिम्मेवारी उसके लिए एक सपने का रूप ले लेती है। जिसमें वह खुद का रेस्टोरेंट खोलने का सपना देखता है। लेकिन उसके पिता उसे इंजीनियर बनाना चाहते है, और उसकी इस चाहत से ताल्लुख नहीं रखते। 12वीं में अच्छे नंबर ना आने पर उसे कॉलेज में दाखिला भी नही मिल पाता।
वहीं रॉनी 12वीं के बाद अपने पुश्तैनी बिजनेस में इतना व्यस्त हो जाता है कि वह अपने दोस्त को अनदेखा करने लगता है। यहाँ तक कि किसी बात पर रॉनी के परिवार और कुक्कू के बीच झगड़ा हो जाता है और ऐसे में रॉनी के दादा कुक्कू की झंड कर देते है। जिसका नतीजा ये होता है कि कुक्कू और रॉनी बीच गहरी खाई पट जाती है।
फिल्म में ट्विस्ट तब आता है जब एंट्री होती है कुक्कू के चचेरे भाई प्रभाकर (अमित सियाल) की। जो कुक्कू को अपनी चालबाजी बुद्धि से उलटी सीधी पट्टी पढ़ाता है। जो उसे रॉनी से बदले के लिए उकसाता है। इसके बाद क्या होता है, क्या कुक्कू प्रभाकर की बातों में आता है या नही और क्या होता है कुक्कू और रॉनी की दोस्ती का अंजाम ये तो आपको फिल्म देखकर ही पता चलेगा।
वैसे तो फिल्म को रोमांटिक कॉमेडी का नाम दिया गया है लेकिन फिल्म का मुद्दा रोमांस नही बल्कि दोस्ती है। फिल्म में कुक्कू और मिताली (सिमरन कौर मुंडी) ने प्रेमी-प्रेमिका की भूमिका निभाई है लेकिन रोमांस को जगह ना के बराबर दी गई है।
आग फिल्म के दृश्यों, कहानी, स्क्रीनप्ले और डायलॉग पर एक नजर डाली जाए तो, फिल्म के कुछ दृश्य बेहद अच्छे है। फिल्म में बिहारी, पंजाबी, हरयाणवी और हिंदी को दक्षिणी दिल्ली के परिवेश में मिलकर कुछ हद तक मनोरंजक रेसेपी तैयार की गई है। लेकिन फिल्म का स्क्रीनप्ले थोड़ा ढीला और सुस्त है। कहानी का प्लाट बेहद सीधा और सपाट है, इसे कुछ कोशिशों से और प्रभावी बनाया जा सकता था।
फिल्म में अभिनय की बात करें तो यह पूरी तरह से ताजा-तरीन चेहरों की फिल्म है। जिनके लिए साफ तौर पर कहा जा सकता है वे एक प्रभावशाली अभिनय देने असफल रहे है। उनके किरदारों में ऊर्जा की कमी नजर आई है। वहीं इनके अलावा अगर फिल्म में किसी का अभिनय ऊर्जावान था तो वह था अमित सियाल का। जिन्होंने कुक्कू के कानपुर वाले एक कुटिल चचेरे भाई प्रभाकर की भूमिका निभाई है। वहीं चिर-परिचित चेहरे सिद्धार्थ भारद्वाज, सोमेश अग्रवाल के हिस्से में कुछ ज्यादा थान हीं।