​​फिल्म समीक्षा: मानवता के लिए साजिद की क्रूरता है, 'हमशकल्स'

Saturday, June 21, 2014 18:49 IST
By Santa Banta News Network
अभिनय: सैफ अली खान, रितेश देशमुख, राम कपूर, तमन्ना भाटिया, बिपाशा बसु, ईशा गुप्ता

निर्देशक: साजिद खान

अवधि: 2 घंटे 39 मिनट

शैली: हास्य

रेटिंग: 1/2 स्टार

'हिम्मतवाला' की अपार असफलता के बाद साजिद खान ने अपने एक बयान में कहा था कि मुझे इस बात का पछतावा है कि मैंने ये फिल्म बनाई क्यों। दुर्भाग्यवश एक बार फिर उन्हें ये ही लाइन दोहरानी पड़ सकती है अपनी फिल्म 'हमशकल्स' के लिए। जो आज प्रदर्शित हो गई है और अब साजिद के हाथों से निकलकर दर्शकों के सामने है, जिसका फैंसला अब उन्हीं के हाथों में है।

फिल्म की कहानी है, एक बिजनेस टायकून अशोक सिंघानिया (सैफ अली खान) की, जिसके पिता कई सालों से कोमा में हैं और अब वह इस बिजनेस एम्पायर के इकलौता मालिक हैं। उनके इस बिजनेस की देखभाल करते हैं अशोक के मामा कुंवर अमर नाथ सिंह उर्फ कंस (राम कपूर)। अगर 'मामा कंस' नाम सुनकर आपके दिमाग में एक कुटिल मामा की छवि उभर कर सामने आती है, तो आप बिलकुल सही हैं। मामा की नजरे अपने भांजे पर नहीं बल्कि भांजे के बिजनेस और उसे हथियाने के षड्यंत पर टिकी हैं।

उसका असली मकसद इस बिजनेस एम्पायर को हथियाना है। जिसके लिए वह एक डॉक्टर अली (नवाब शाह) के साथ मिलकर अशोक और उसके बचपन के दोस्त कुमार (रितेश देशमुख) को धोखे से एक दवाई खिला देता है और जिसके बाद ये दोनों अपना मानसिक संतुलन खो देते हैं। इसके बाद उन्हें पागल खाने भिजवा दिया जाता है और जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है वैसे-वैसे उनके डुप्लीकेट सामने आते जाते हैं।

एक और तो अशोक और रितेश पागल खाने में फंस जाते हैं और वहीं दूसरी और मामा कंस सारे बिजनेस को अपने नाम करने की साजिश में जुट जाता है। जिसके बाद चीजें और भी उलझती चली जाती है। तो क्या अशोक और कुमार अपनी इस मुसीबत से बाहर निकलने में कामयाब हो पाते हैं और क्या मामा कंस अपनी साजिस में सफल हो पाता है, बस इसी के चारों और घूमती है ये कहानी।

फिल्म में तीन अभिनेताओं के दो-दो और आगे हमशक्ल और इनकी अदला-बदली के चलते फिल्म में बहुत ज्यादा कंफ्यूजन पैदा होता है। दर्शक समझ नहीं पाते कि वो देख क्या रहे हैं और उस पर फिल्म का पकाऊ और सिरदर्द करने वाला बैक ग्राउंड संगीत सोने पर सुहागे वाली कहावत को चरितार्थ करते हैं। फिल्म में जिस हिसाब से उटपटांग हरकते और दृस्य भरे हुए हैं, निश्चिंत तौर पर दर्शकों पर जादू चलाने में नाकामयाब हैं।

फिल्म का स्क्रीनप्ले देख कर लगता है कि क्या ये वही निर्देशक हैं जिन्होंने 'हाउसफुल' और 'हे बेबी' जैसी फ़िल्में दी थी। कहा जा सकता है कि इस फिल्म के माध्यम से वह अपना जादू चलने में पूरी तरह से नाकमयाब रहे हैं। फिल्म की स्क्रिप्ट इतनी उलझी हुई है कि देख कर अंदाजा लग जाता है कि सिर्फ दर्शक ही नहीं बल्कि फिल्म निर्देशक भी इसे बनाते-बनाते खुद ही उलझ गए होंगे। फिल्म की कहानी में कोई दम नहीं है। वहीं हिमेश रेशमिया का कम्पोज़ किया हुआ गीत "कॉलर ट्यून", "पिया के बाज़ार में," हम पागल नहीं है' औसत दर्जे के गाने हैं।

अभिनय के नाम पर सैफ, राम और रितेश से कॉमेडी करवाना निर्देशक को महंगा पड़ा है। हालाँकि रितेश ने कॉमेडी के मामले में सैफ से बाजी मारी है। और वह काफी हद तक ठीक-ठाक अभिनय देने में कामयाब हुए हैं। लेकिन फिल्म की उलझ-पुलझ कहानी उनके अभिनय को फीका करने पर भारी पड़ी है। अभिनेत्रियां तो सिर्फ शोपीस ही कही जा सकती है। उनके पास सिर्फ अदाए दिखाने के कुछ दृश्यों के अलावा कुछ नहीं था।

यही नही बिपाशा भी फिल्म के प्रोमोशन में इसलिए नहीं गई क्योंकि उन्हें फिल्म देख कर पहले ही ये अंदाजा हो गया था कि फिल्म में उनके किरदार का नतीजा जीरो है। और आखिर कार वही हुआ। वहीं अगर फिल्म में अन्य कलाकारों बात की जाए तो सतीश शाह ने इसमें एक पागल खाने के वार्डन की भूमिका निभाई है और वह एक हिटलर जैसी भूमिका में अपने किरदार के हिसाब से कुछ हद तक ठीक रहे हैं। उनके अलावा फिल्म के बाकी कलाकार औसत दर्जे के रहे।

कुल मिलाकर फिल्म सिर्फ दिमाग को थकाने और उबाने वाली है। जिसे देखने के बाद थियेटर से बाहर निकलते हुए दर्शक राहत मसहूस करते हैं। अगर सिरदर्द से परेशान हैं तो फिल्म देखने से बचें और अगर बिना मतलब की कॉमेडी और बेसिर पैर की बातों पर भी ठहाके लगा कर हंसने की आदत है तो फिल्म देख सकतें हैं।
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