फिल्म समीक्षा: 'पंजाब 1984' एक बेहद संवेदनशील कहानी है

Saturday, June 28, 2014 16:28 IST
By Santa Banta News Network
स्टार कास्ट: दिलजीत दोसांझ, किरण खेर, पवन मल्होत्रा​​, सोनम बाजवा, अरुण बाली, दलजिंदर बासरन, अर्जुन भल्ला, गुरुचरण चन्नी

निर्देशक: अनुराग सिंह

रेटिंग: ***

​​ ​फिल्म 1984 की बेहद जटिल और दर्दनाक ​​परिस्थिति​यों का बेहद सजीव और अच्छा प्रदर्शन है। जो उस समय के ​पंजाब के राजनीतिक और सामाजिक इतिहास​ के​​ ​एक ​दर्दनाक ​इतिहास को बेहद उम्दा और बारीकी से दोहराती है। कहा जा सकता है कि फिल्म अपना वह संदेश छोड़ने में काफी हद तक क़ामयाब है, जो वह छोड़ना चाहती थी। लेकिन साथ ही फ़िल्म के कुछ हिस्सों को वास्तविकता से हटकर एक कल्पनात्मक्त कहानी भी कहा जा सकता है।

फिल्म के मुख्य किरदार दिलजीत दोसांझ ने उस समय की जटिल ​परिस्थिति​यों को अपने अभिनय से काफी अच्छे से बखान किया है। उन्होंने इसमें दर्शाया है कि कैसे उन दिनों में लोग आतंकवादियों, पुलिस और राजनेताओं ​की हिंसक और मिली भगत के शिकार थे।

​निर्देशक को उनके इस प्रयास के लिये सराहना मिलनी चाहिये, जिसमें उन्होंने 1984 ​में हुए 'स्वर्ण मंदिर' पर सेना द्वारा किये गये उस आक्रमण को दिखाया जिसमें उन्होंने भिंडरांवाले​ और उनकी ब्रिगेड पर हमला कर दिया था।

​कहानी एक माँ (किरण खेर) की गंभीर स्थिति और दुर्दशा का बखान भी करती है। ​वह अपने खोये हुए बेटे शिवा की दुखयारी माँ है। जिसके पति को पुलिस ने आतंकवादी करार देकर मार डाला था। निर्देशक ​ने फिल्म में आतंकवाद, ​एक किशोर के ​प्रेम संबंध​, ​नेताओं और उनके मध्यस्थों ​की षड्यंत्रकारी चालों, का बखूबी बखान किया है।

​​फिल्म की ज्यादातर शूटिंग अमृतसर जिले के ग्रामीण ​क्षेत्रों में की गई ​है​। निर्देशक ने बेहद बारीकी और सुगढ़ता से दर्शाया है कि कैसे बस में सवारी करते हुए हिन्दुओं को आतंकवादीयों द्वारा जान से मार दिया जाता है। ​​​जो पंजाब पुलिस ​का एक नृशंस आचरण​ था। इसके अलावा फिल्म की कहानी ग्रामीण क्षेत्रों की भूमि​गत लड़ाइयों को भी दर्शाती है। जिसमें बताया गया है कि कैसे व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता ​एक बड़ी दुर्घटना का रूप ले लेती है और जिसमें एक किसान को शिवा द्वारा मार दिया जाता है।

​​हालाँकि फिल्म में 1984 ​में होने वाली घटना को ​बार​-​बार​ दोहराया जाता है, लेकिन ​पूरे ​देश के सिखों के नरसंहार को उचित ​रूप से चित्रित करने में फिल्म असफल लगती। साथ ही एक बात और जो थोड़ी अज़ीब लगती है क़ि फिल्म में इंद्रागांधी का जिक्र नहीं किया गया है।

​ ​​​वहीं एक और यह भी कहा जा सकता है कि यह फिल्म ऐसी माँ की ​कहानी है जिसने​ ​1984 के दंगों में अपने बेटे को खो दिया था। जिस समय पंजाब आतंकवाद की भीषण आग में झुलस रहा था। ये कहानी एक अपने बेटे के लिए तरसती माँ और अनियंत्रित प्रस्थितियों से जूझते बेटे की हैं। जिस वजह से फिल्म भावनात्मक शैली से भरपूर है।

​ ​लगभग सात करोड़ की लागत में बना यह प्रोजेक्ट दिलजीत दोसांझ और किरण खेर के लिए एक सपना था।
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