निर्देशन: प्रदीप सरकार
रेटिंग: ***
इस बात से शायद भारतीय फ़िल्में देखने वाला जान समूह इत्तेफाक रखेगा की जब से भारतीय फिल्म उद्योग अस्तित्व में आया तभी से फिल्म निर्माण की कुछ ऐसी शैलियाँ रही हैं जो कि इसका एक अभिन्न अंग बन गयी हैं, और निस्संदेह ही "स्त्री प्रधान" फिल्में उस शैली समूह में से एक हैं।
चाहे वह नर्गिस, दिलीप कुमार और सुनील दत्त की "मदर इंडिया" हो, केतन मेहता की "मिर्च मसाला", राज कुमार संतोषी की "दामिनी" या फिर हाल ही में आयी फिल्में जैसे की "नो वन किल्ड जेसिका", "द डर्टी पिक्चर", या फिर सुजॉय घोष की "कहानी" इन सभी फिल्मों को मिली अपार सफलता इस बात का प्रमाण हैं की जितनी बार हमारे फिल्म निर्माताओं ने किसी स्त्री प्रधान विषय को सिने-पर्दे पर चित्रित किया है, उतनी ही बार वे दर्शकों एवं समीक्षकों की प्रशंसा के पात्र बने हैं। परन्तु इसका अर्थ ये कदापि नहीं है की स्त्री प्रधान विषय सफलता प्राप्त करने के लिए किसी भी तरह अनुमंत्रित हैं, बल्कि यह हमारे निर्देशकों की उत्कृष्ट कहानी वर्णन दक्षता और सशक्त कहानी का वो बेजोड़ तालमेल है जो की हमेशा ही दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर जाता है। और बॉक्स ऑफिस पर "चक दे इंडिया", "नो वन किल्ड जेसिका", "द डर्टी पिक्चर" और "कहानी" जैसी फिल्मों को मिली अपार सफलता इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
जब से सिनेमा में स्त्री प्रधान फिल्मों का प्रचलन शुरू हुआ है तब से लेकर अब तक भारतीय सिनेमा के किसी और घटक की भाति स्त्री प्रधान फिल्मों में भी केंद्रीय भूमिका निभाने वाली नायिकाओं के किरदारों में भी समयक् परिवर्तन आते रहे है। गुज़रे दशकों में जहां स्त्री को एक अक्षम अबला नारी के रूप प्रस्तुत किया जाता था वहीँ अब उनका प्रस्तुतीकरण ज़्यादा सशक्त और सबला रूप में किया जाता है। और प्रदीप सरकार की हाल ही में रिलीज़ हुई फिल्म मर्दानी इसका एक मूर्त उदहारण है जो की प्रत्यक्ष रूप से महिला सशक्तिकरण और सुरक्षा की हिमायत करती है।
मर्दानी की कहानी मुंबई पुलिस की क्राइम ब्रांच में कार्यरत एक महिला पुलिस इंस्पेक्टर शिवानी शिवाजी रॉय (रानी मुखर्जी) के इर्दगिर्द घूमती है। किसी आम महिला की भाति शिवानी का एक छोटा सा परिवार है जिसमे उसके पति डॉ बिक्रम रॉय (जिशु सेनगुप्त ) और भांजी के अलावा एक गरीब लड़की प्यारी (प्रियंका शर्मा) है जो की एक अनाथ आश्रम में रहती है और जिसकी देखरेख का बीडा शिवानी ने उठाया हुआ है। एक दिन अचानक रानी को पता चलता है की प्यारी अपने अनाथ आश्रम से चार दिन से गायब है, शुरू में तो वो इसे एक सामान्य से अपहरण की घटना समझ कर नज़र अंदाज़ कर देती है। परन्तु कहानी के आगे बढ़ने के साथ ही शिवानी को एहसास होता है की यह कोई आम अपहरण का मामला नहीं है और जब वह इस सारी घटना की परत दर परत पड़ताल शुरू करती है तो उसे पता चलता है की इस सारी घटना की जड़ में देह व्यापार और नशे की तस्करी का ऐसा शर्मनाक मकड़जाल फैला हुआ जिसने की अनगिनत मासूम लड़कियों को लील लिया है।
और फिर शुरू होती है प्यारी के लिए रानी की खोज जिसमे उसका सामना इस काली दुनिया के ऐसे मसीहा वाल्ट (ताहिर राज भसीन) से होता है जो की अपनी घिनौनी महत्वकांक्षाओं की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। तो क्या रानी प्यारी को खोज पाती है या उसे वाल्ट के हाथों मात का सामना करना पड़ता है, जानने के लिए लिए देखें प्रदीप सरकार द्वारा निर्मित नारी सशक्तिकरण का यह अद्भुत सिने नमूना।
अगर मर्दानी की कहानी की बात की जाए तो इस बात में कोई दोराय नहीं है कि फिल्म की कहानी बहुत ही सामान्य और पूर्वानुमेयता से परिपूर्ण है। परन्तु इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि यह एक नीरस कथा है। बल्कि इसके विपरीत मर्दानी की कहानी पूर्णरूप से एककग्रित रखने वाला वो वृत्तांत है जिसमे की दर्शक पूर्णरूप से एकाग्रचित हो जाते है और वो इसीलिए क्योंकि पूर्वानुमेयता बहुल वृत्तांत होने के बावजूद मर्दानी का कथानक आपको एक पल के लिए भी अपनी नज़रें सिने परदे से हटाने की गुंजाइश नहीं देता, और यही एक ऐसी खासियत है जो कि मर्दानी को अपनी संयुगीन कईं सिने कहानियों से पृथक करती है। फिल्म की शुरुआत से लेकर इसके चरमोत्कोर्ष तक ना सिर्फ फिल्म की कहानी अपने पथ पर दृढ़ता से विचरण करती है, बल्कि एक रोमांचक और भावोत्तेजक कथा होने बावजूद पूर्णरूप से यथार्थवादी भी रहती है। और इसके लिए सारा श्रेय जाता है फिल्म के लेखक गोपी पुथरन को जिन्होंने अपनी सधी हुई लेखनी से एक सामजिक तौर पर सम्बद्ध मसले को एक भावोत्तेजक कहानी के साथ बहुत ही कुशलता से प्रस्तुत किया।
बेशक कुछ जगहों पर कुछ दर्शकों को कुछ अंश वास्तविकता से परे लग सकते हैं परन्तु सधे हुए लेखन और कार्यान्वयन और फिल्म की भावना को मद्देनज़र रखते हुए इन गौण त्रुटियों को नज़र-अंदाज़ किया जा सकता है।
अब चाहे इसे सरकार की सिने दक्षता कह लीजिये या फिर उनकी दूरदर्शिता परन्तु जब भी प्रदीप ने किसी भी फिल्म के निर्देशन बागडोर संभाली है, वे एक उत्कृष्ट सिने नमूना प्रस्तुत करने में सफल हुए हैं। बल्कि प्रदीप की निर्देशन कुशलता के बारे में यह भी कहना गलत नहीं होगा की उनके हाथ में एक बहुत सी सामान्य सी दिखने वाली कहानी होने के बावजूद वो उसे एक ऐसी फिल्म का रूप देने में कामयाब हो जाते हैं जिसकी प्रशंसा किये बिना कोई भी रह नहीं सकता और मर्दानी भी इसमें कोई अपवाद नहीं है। अब चाहे फिल्म का निर्देशन हो, पटकथा या संवाद प्रदीप ने मर्दानी के हर पहलु को ना सिर्फ एक प्रशंसीय अनुपात में रखा है बल्कि इतनी मनोहरता से उनका प्रस्तुतीकरण किया है की दर्शक मर्दानी पर पूर्णरूप से मंत्रमुग्ध हुए बिना रह ही नहीं पाते। और इन सभी तकनीकी परिपेक्ष्यों में जो एक चीज़ सबसे ज़्यादा सराहनीय है वह यह कि मर्दानी के ना तो संवादों को और ना ही एक्शन को किसी अनवांछित सिने मसाले से अलंकृत नहीं किया गया है जिसके कारण फिल्म दर्शकों को वास्तविकता के बहुत ही निकट लगती है। फिल्म में आर्थर ज़ुरावस्की की चलचित्रकला उत्कृष्ट है और साथ ही संजीब दत्ता ने भी अपनी सराहनीय सम्पादन कुशलता से फिल्म को एक मनोरंजक अनुभव बना दिया है। मनोहर का एक्शन कहीं भी और किसी भी तरह से वास्तविका के अनुपात से बाहर जाता हुआ नहीं मालूम पड़ता, बल्कि ऐसा लगता है कि जो भी एक्शन दृश्य उन्होंने फिल्म के लिए बुने वे खासतौर पर मर्दानी की भावना को ध्यान में रख कर ही गढ़े गए हैं।
अगर अभिनय की बात की जाए तो इस बात में कोई दो राय नहीं है की मर्दानी में शुरुआत से लेकर अंत तक रानी दर्शकों का ध्यान और एककाग्रता अपनी और खींचने मे पूर्ण रूप से सफल रही हैं। और अगर रानी की अभिनय प्रवीणता की बात की जाए तो एक सलज्ज परन्तु तेज़ तर्रार पुलिस अफसर का किरदार उन्होंने ना सिर्फ बखूबी निभाया है बल्कि अपनी अभिनय क्षमता से यह भी प्रमाणित कर दिया है कि भारतीय फिल्म उद्योग की वो एक ऐसी नायिका है जो कि किसी भी और कैसे भी पात्र के साथ न सिर्फ न्याय कर सकती हैं बल्कि उसे बड़े परदे पर जीवंत भी कर सकती हैं। और अगर यह कहा जाए की इस बार मर्दानी में अपने अभिनय कौशल के द्वारा रानी ने "नो वन किल्ड जेसिका" में अपने द्वारा निर्धारित किये गए अभिनय कीर्तिमान को ध्वस्त कर है, तो यह भी गलत नहीं होगा।
वैसे तो अक्सर देखा गया है कि रानी जैसे अनुभवी अदाकार के सामने अक्सर नौसिखिये कलाकार अपनी छाप छोड़ने में असफल रहते हैं परन्तु फिल्म के खलनायक ताहिर राज भसीन इस भ्रान्ति का संहार करते नज़र आते हैं। चाहे बात हो एक खलनायक की नृशंसता प्रस्तुत करने की या फिर अपने संवादों से दर्शकों के ज़हन में छाप छोड़ने की, हर चीज़ ताहिर इतने आत्मविश्वास से कि किसी भी दर्शक के लिए उन्हें अनदेखा करना मुश्किल हो जाता है।
अगर बात की जाये फिल्म के सहायक अभिनेता वर्ग की तो हालांकि जिशु सेनगुप्त, मोना अम्बेगाओंकर, अनिल जॉर्ज आदि को अपना अभिनय कौशल दिखाने का बहुत ज़्यादा मौक़ा नहीं मिलता परन्तु उसके बावजूद वे अपनी अभिनय दक्षता से फिल्म के मुख्य अभिनेताओं का अच्छा साथ देते हैं।
बहराल, वैसे तो मर्दानी जैसी फिल्मों की जितनी तारीफ़ की जाए काम है, क्योंकि ये ना सिर्फ दर्शकों का मनोरंजन करती हैं बल्कि उनकी एक ऐसे विचारणीय मुद्दे के साथ भेंट कराती हैं जिसके बारे में सोचना शायद हर ज़िम्मेवार मनुष्य लिए ज़रूरी है। तो मर्दानी की तलहटी में छुपे उस सामाजिक तौर पर सम्बद्ध मसले, रानी और उनके सहकलाकारों के सरहानीय अभिनय और प्रदीप सरकार के अद्भुत निर्देशन को मद्देनज़र रखते हुए मुझे यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं है कि मर्दानी एक उत्कृष्ट फिल्म है जिसे सभी आयु वर्ग के दर्शक पसंद करेंगे।