ख़ुशी की कविता या कुछ और?
मन था उदास... बड़ी हसरतों से निगाहें दरवाजे पर थीं... सहसा कुछ खटका सा हुआ।
उल्लसित मन से मैं दरवाजे की ओर बढ़ी कि लेकिन यह क्या।
वह मन का भ्रम था; दिल बैठने सा लगा, बुझे मन से लौट ही रही थी... कि सहसा एक आवाज आई
"भाभी"!
मन की वीणा झंकृत हो उठी।
मन मयूर नाच उठा।
यह कोई स्वप्न नहीं तुम साक्षात पधार चुकी थीं।
धन्य हो भगवन धन्य अब मन नहीं था उदास, माहौल हो गया था ख़ुशगवार, मन मृदंग के बज रहे थे तार, वह आ चुकी थी। सचमुच वो आ चुकी थी।
यह कविता नहीं... कामवाली बाई के चार दिन की छुट्टी के बाद काम पर आने की ख़ुशी में एक गृहिणी के हृदय से निकले उदगार हैं। चाहें तो फिर से पढ़ लें।



