नई मधुशाला!

मैं औऱ मेरी तनहाई, अक्सर ये बाते करते हैं;
ज्यादा पीऊं या कम, व्हिस्की पीऊं या रम।

या फिर तोबा कर लूं... कुछ तो अच्छा कर लूं।
हर सुबह तोबा हो जाती है, शाम होते-होते फिर याद आती है।
क्या रखा है जीने में, असल मजा है पीने में।

फिर ढक्कन खुल जाता है, फिर नामुराद जिंदगी का मजा आता है।
रात गहराती है, मस्ती आती है। कुछ पीता हूं, कुछ छलकाता हूँ।

कई बार पीते-पीते, लुढ़क जाता हूँ।
फिर वही सुबह, फिर वही सोच।
क्या रखा है पीने में, ये जीना भी है कोई जीने में!
सुबह कुछ औऱ, शाम को कुछ और।

थोड़ा गम मिला तो घबरा के पी गए,
थोड़ी ख़ुशी मिली तो मिला के पी गए;
यूँ तो हमें न थी ये पीने की आदत...
शराब को तनहा देखा तो तरस खा के पी गए।