आज की रात मेरा दर्द मोहब्बत सुन ले;
कप-कपाते हुए होंठों की शिकायत सुन ले;
आज इज़हारे ख़यालात का मौका दे दे;
हम तेरे शहर में आये हैं, मुसाफिर की तरह।
दुआ मांगी थी आशियाने की;
चल पड़ी आंधियाँ जमाने की;
मेरा गम कोई नही समझ पाया;
क्योंकि मेरी आदत थी मुस्कुराने की।
होंठ कह नहीं सकते जो फ़साना दिल का;
शायद नजरों से वह बात हो जाये;
इस उम्मीद में करते हैं इंतज़ार रात का;
कि शायद सपनों में ही मुलाक़ात हो जाये।
मिलना इतिफाक था, बिछड़ना नसीब था;
वो उतना ही दूर चला गया, जितना वो करीब था;
हम उसको देखने के लिए तरसते रहे;
जिस शख्स की हथेली पर हमारा नसीब था।
आँखों में रहा दिल में उतर कर नहीं देखा;
कश्ती के मुसाफिर ने समंदर नहीं देखा;
पत्थर मुझे कहता है मेरा चाहने वाला;
मैं मोम हूँ उसने मुझे छू कर नहीं देखा।
हम ये नहीं चाहते कि कोई आपके लिए 'दुआ' ना मांगे;
हम तो बस इतना चाहते है कि कोई 'दुआ' में आपको ना मांगे।
बहुत अरसे बाद उसका फोन आया तो मैंने कहा, "कोई झूठ ही बोल दो।"
वो लम्बी सांस लेकर बोले, "तुम्हारी याद बहुत आती है"।
बहुत नायब होते हैं जिन्हें हम अपना कहते हैं;
चलो तुमको इज़ाजत है कि तुम अनमोल हो जाओ।
मजबूर मोहब्बत जता न सके;
ज़ख्म खाते रहे किसी को बता न सके;
चाहतों की हद तक चाहा उसे;
सिर्फ अपना दिल निकाल कर उसे दिखा न सके।