मुझे कहाँ फ़ुर्सत है कि मैं मौसम सुहाना देखूँ;
आपसे मेरी नज़र हटे तो मैं ये ज़माना देखूँ!

दिल के लुट जाने का इज़हार जरूरी तो नहीं,
ये तमाशा सर-ए-बाज़ार जरूरी तो नहीं;
मुझे था इश्क़ तेरी रूह से और अब भी है,
जिस्म से हो कोई सरोकार जरूरी तो नही;
मैं तुझे टूट कर चाहूँ ये तो मेरी फ़ितरत है,
तू भी हो मेरा तलबगार जरूरी तो नहीं;
ऐ सितमगर जरा झाँक जरा मेरी आँखों में,
जुबां से हो प्यार का इज़हार जरूरी तो नहीं!

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दिल पे कुछ और गुज़रती है मगर क्या कीजे;
लफ़्ज़ कुछ और ही इज़हार किए जाते हैं!

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जान-लेवा थीं ख़्वाहिशें वर्ना;
वस्ल से इंतज़ार अच्छा था!

*वस्ल: मिलन

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इश्क़ के इज़हार में हर-चंद रुस्वाई तो है;
पर करूँ क्या अब तबीअत आप पर आई तो है!

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ये कहना था उन से मोहब्बत है मुझ को;
ये कहने में मुझ को ज़माने लगे हैं!

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वक़्त नूर को बेनूर कर देता है,
छोटे से ज़ख्म को नासूर कर देता है;
कौन चाहता है अपनों से दूर रहना,
पर वक़्त सबको मजबूर कर देता है!

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दूरियों का ग़म नहीं अगर फ़ासले दिल में ना हों;
नज़दीकियां बेकार हैं अगर जगह दिल में ना हो!

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अगर यकीन होता की कहने से रुक जायेंगे,
तो हम भी हँसकर उनको पुकार लेते;
मगर नसीब को मेरे ये मंजूर नहीं था,
के हम भी दो पल खुशी से गुजार लेते!

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ख़्वाब की तरह बिखर जाने को जी चाहता है;
ऐसी तन्हाई कि मर जाने को जी चाहता है!