ग़म-ए-दुनिया भी ग़म-ए-यार में शामिल कर लो
नशा बढ़ता है शराबें जो शराबों में मिलें
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें,
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयां होंगे;
बहारें हमको ढूँढेंगी न जाने हम कहाँ होंगे..!
मुझे कहाँ फ़ुर्सत है कि मैं मौसम सुहाना देखूँ;
आपसे मेरी नज़र हटे तो मैं ये ज़माना देखूँ!
वो ग़ज़ल वालों का उस्लूब समझते होंगे;
चाँद कहते हैं किसे ख़ूब समझते होंगे!
इतनी मिलती है मेरी ग़ज़लों से सूरत तेरी;
लोग तुझको मेरा महबूब समझते होंगे!
इश्क़ वालों को फ़ुर्सत कहाँ, कि वो गम लिखेंगे;
अरे कलम इधर लेकर आओ, बेवफ़ा के बारे में हम लिखेंगे!
नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने;
क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने!
खेल समझा है कहीं छोड़ न दे भूल न जाए;
काश यूँ भी हो कि बिन मेरे सताए न बने!
बोझ वो सर से गिरा है कि उठाए न उठे;
काम वो आन पड़ा है कि बनाए न बने!
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब';
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने!
तुझ से बिछड़ कर भी ज़िंदा था;
मर मर कर ये ज़हर पिया है!
चुप रहना आसान नहीं था;
बरसों दिल का ख़ून किया है!
जो कुछ गुज़री जैसी गुज़री;
तुझ को कब इल्ज़ाम दिया है!
अपने हाल पे ख़ुद रोया हूँ;
ख़ुद ही अपना चाक सिया है!
कितनी जाँकाही से मैं ने;
तुझ को दिल से महव किया है!
सन्नाटे की झील में तू ने;
फिर क्यों पत्थर फेंक दिया है!
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी;
अब किसी बात पर नहीं आती!
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ;
वर्ना क्या बात कर नहीं आती!!
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे;
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे!