ठान लिया था कि अब और शायरी नहीं लिखेंगे;
उनका पल्लू सरका और अल्फ़ाज़ बग़ावत कर बैठे..!

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अंदाज़ अपना देखते हैं आइने में वो;
और ये भी देखते हैं कोई देखता न हो!

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सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं,
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं;
सुना है रब्त है उस को ख़राब-हालों से,
सो अपने आप को बरबाद कर के देखते हैं!

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अजब तेरी है ऐ महबूब सूरत; नज़र से गिर गए सब ख़ूबसूरत!

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शदीद गर्मी में कैसे निकले वो फूल-चेहरा;
सो अपने रस्ते में धूप दीवार हो रही है!

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हुस्न इक दिलरुबा हुकूमत है;
इश्क़ इक क़ुदरती ग़ुलामी है!

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पूछा जो उन से चाँद निकलता है किस तरह;
ज़ुल्फ़ों को रुख़ पे डाल के झटका दिया कि यूँ!

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तड़प जाता हूँ जब बिजली चमकती देख लेता हूँ;
कि इस से मिलता-जुलता सा किसी का मुस्कुराना है!

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उस की आँखों को ग़ौर से देखो;
मंदिरों में चिराग़ जलते हैं!

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तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है;
तेरे आगे चाँद पुराना लगता है!