सर-ऐ-आम ​मुझे ​ये शिकायत है ज़िन्दगी से​;​
क्यूँ मिलता नहीं मिजाज मेरा किसी से...​?​

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ये चाहतें​, ये रौनकें​, पाबन्द है मेरे जीने तक​;​​​
बिना रूह के नहीं रखते​, घर वाले भी ज़िस्म को​।

ये ना पूछ कि शिकायतें कितनी है तुझसे​;​
ए जिंदगी, सिर्फ ये बता कि तेरा कोई और​;​​
​ सितम बाकि तो नहीं है।​

ज़िंदगी को बेनियाजे आर्ज़ू करना पड़ा;
आह किन आँखों से अंजामे तमन्ना देखते।

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​फुर्सत में करेंगे तुझसे हिसाब​-​ए​-​ज़िन्दगी​;
अभी तो उलझे है खुद को सुलझाने में​...​

यूँ तो हादसों में गुजरी है हमारी ज़िंदगी;
हादसा ये भी कम नहीं कि हमें मौत ना मिली।

ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है, जिसमें;
हर घड़ी, दर्द के पैबंद लगे जाते है।

​बिना लिबास आए थे इस जहां में​;​
बस एक कफ़न की खातिर​;​
इतना सफ़र करना पड़ा​।

ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है, जिसमें;
हर घड़ी, दर्द के पैबंद लगे जाते हैं।

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रब ने नवाजा हमें जिंदगी देकर;
और हम शौहरत मांगते रह गये;
जिंदगी गुजार दी शौहरत के पीछे;
फिर जीने की मौहलत मांगते रह गये।

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