
बचपन में सोचता था चाँद को छू लूँ,
आपको देखा वो ख्वाहिश जाती रही।

मोहब्बत ऐसी थी कि उनको बताई न गयी,
चोट दिल पर थी इसलिए दिखाई न गयी,
चाहते नहीं थे उनसे दूर होना पर,
दूरी इतनी थी कि मिटाई न गयी।

तुम कितने दूर हो मुझसे मैं कितना पास हूँ तुमसे,
तुम्हें पाना भी नामुमकिन तुम्हें खोना भी नामुमकिन।

नजाकत तो देखिये, की सूखे पत्ते ने डाली से कहा,
चुपके से अलग करना वरना, लोगो का रिश्तों से भरोसा उठ जायेगा!

क्यों चाँदनी रातों में दरिया पे नहाते हो,
सोये हुए पानी में क्या आग लगानी है।

तेरे ग़म ने ही संभाला है दिल को;
वरना निकल गई हर हसरत होती;
मेरे दिल में अगर तेरी चाहत ना होती;
हर शख्स से मुझे फिर नफ़रत होती!

जाँ-ब-लब ठहरी अब तो प्यारे मेरे;
तेरी इन निगाहों ने होश सँभाले मेरे;
हर शाम को होती हैं यही खवाहिशें;
आ बैठोगे तुम दिल के किनारे मेरे!

लड़ के जाता तो हम मना लेते;
उसने तो मुस्कुरा के छोड़ा है!

सफर-ए-मोहब्बत अब खत़म हीं समझिए साहिब,
उनके रवैये से अब जुदाई की महक आने लगी है!

अगर एहसास बयां हो जाते लफ्जों से;
तो फिर कौन तारीफ करता खामोशियों की!