किसी को घर से निकलते ही मिल गई मंज़िल;
कोई हमारी तरह उम्र भर सफ़र में रहा।
वो जो बन के दुश्मन मुझे जीतने को निकले थे,
कर लेते अगर मोहब्बत मैं खुद ही हार जाता।
तू भी औरों की तरह मुझ से किनारा कर ले;
सारी दुनिया से बुरा हूँ तेरे किस काम का हूँ।
हमें नींद की इज़ाज़त भी उनकी यादों से लेनी पड़ती है;
जो खुद आराम से सोये हैं हमें करवटों में छोड़ कर।
चल रहे हैं इस दौर में रिश्वतों के सिलसिले;
तुम भी कुछ ले देके मेरे क्यों नही हो जाते?
दोस्तों को भी मिले दर्द की दौलत या रब;
मेरा अपना ही भला हो मुझे मंज़ूर नहीं।
जो बात मुनासिब है वो हासिल नहीं करते;
जो अपनी गिरह में हैं वो खो भी रहे हैं;
बे-इल्म भी हम लोग हैं ग़फ़लत भी है तेरी;
अफ़सोस के अंधे भी हैं और सो भी रहे हैं।
एक मुद्दत से मेरे हाल से बेगाना है;
जाने ज़ालिम ने किस बात का बुरा माना है;
मैं जो ज़िद्दी हूँ तो वो भी है अना का कैदी;
मेरे कहने पे कहाँ उसने चले आना है।
हो मुखातिब तो कहूँ, क्या मर्ज़ है मेरा;
अब तुम ख़त में पूछोगे, तो खैरियत ही कहेंगे।
मेरी ख़बर तो किसी को नहीं मगर 'अख़्तर';
ज़माना अपने लिए होशियार कैसा है।



