अब आ गयी है सहर अपना घर सँभालने को; चलूँ कि जागा हुआ रात भर का मैं भी हूँ!
सफ़र पीछे की जानिब है क़दम आगे है मेरा; मैं बूढ़ा होता जाता हूँ जवाँ होने की ख़ातिर!
जितनी बँटनी थी बँट चुकी ये ज़मीन; अब तो बस आसमान बाक़ी है!
दीवारें छोटी होती थीं लेकिन पर्दा होता था; तालों की ईजाद से पहले सिर्फ़ भरोसा होता था!
हम तोहफ़े में घड़ियाँ तो दे देते हैं; एक दूजे को वक़्त नहीं दे पाते हैं!
चिराग घर का हो महफ़िल का हो कि मंदिर का; हवा के पास कोई मस्लहत नहीं होती! *मस्लहत: भला बुरा देख कर काम करना
चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है; मैंने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है!
ख़्वाब होते हैं देखने के लिए; उन में जा कर मगर रहा न करो!
मैं बोलता हूँ तो इल्ज़ाम है बग़ावत का; मैं चुप रहूँ तो बड़ी बेबसी सी होती है!
अगर ऐ नाख़ुदा तूफ़ान से लड़ने का दम-ख़म है; इधर कश्ती न ले आना यहाँ पानी बहुत कम है!



