न मंदिर में सनम होते, न मस्जिद में खुदा होता,
हमीं से यह तमाशा है, न हम होते तो क्या होता;

न ऐसी मंजिलें होतीं, न ऐसा रास्ता होता,
संभल कर हम ज़रा चलते तो आलम ज़ेरे-पा होता;

घटा छाती, बहार आती, तुम्हारा तज़किरा होता,
फिर उसके बाद गुल खिलते कि ज़ख़्मे-दिल हरा होता;

बुलाकर तुमने महफ़िल में हमको गैरों से उठवाया,
हमीं खुद उठ गए होते, इशारा कर दिया होता;

तेरे अहबाब तुझसे मिल के भी मायूस लौट गए,
तुझे 'नौशाद' कैसी चुप लगी थी, कुछ कहा होता।

एहसास में शिद्दत है वही, कम नहीं होती,
एक उम्र हुई, दिल की लगी कम नही होती;

लगता है कहीं प्यार में थोड़ी-सी कमी थी,
और प्यार में थोड़ी-सी कमी कम नहीं होती;

अक्सर ये मेरा ज़ह्न भी थक जाता है लेकिन,
रफ़्तार ख़यालों की कभी कम नहीं होती;

था ज़ह्र को होंठों से लगाना ही मुनासिब,
वरना ये मेरी तश्नालबी कम नहीं होती;

मैं भी तेरे इक़रार पे फूला न समाता,
तुझको भी मुझे पाके खुशी कम नहीं होती;

फ़ितरत में तो दोनों की बहुत फ़र्क़ है लेकिन,
ताक़त में समंदर से नदी कम नहीं होती।

बुझा है दिल भरी महफ़िल में रौशनी देकर,
मरूँगा भी तो हज़ारों को ज़िन्दगी देकर;

क़दम-क़दम पे रहे अपनी आबरू का ख़याल,
गई तो हाथ न आएगी जान भी देकर;

बुज़ुर्गवार ने इसके लिए तो कुछ न कहा,
गए हैं मुझको दुआ-ए-सलामती देकर;

हमारी तल्ख़-नवाई को मौत आ न सकी,
किसी ने देख लिया हमको ज़हर भी देकर;

न रस्मे दोस्ती उठ जाए सारी दुनिया से,
उठा न बज़्म से इल्ज़ामे दुश्मनी देकर;

तिरे सिवा कोई क़ीमत चुका नहीं सकता,
लिया है ग़म तिरा दो नयन की ख़ुशी देकर।

हर एक शाम का मंज़र धुआँ उगलने लगा,
वो देखो दूर कहीं आसमाँ पिघलने लगा;

तो क्या हुआ जो मयस्सर कोई लिबास नहीं,
पहन के धूप मैं अपने बदन पे चलने लगा;

मैं पिछली रात तो बेचैन हो गया इतना,
कि उस के बाद ये दिल ख़ुद-ब-ख़ुद बहलने लगा;

अजीब ख़्वाब थे शीशे की किर्चियों की तरह,
जब उन को देखा तो आँखों से ख़ूँ निकलने लगा;

बना के दाएरा यादें सिमट के बैठ गईं.
ब-वक़्त-ए-शाम जो दिल का अलाव जलने लगा।

कब वो ज़ाहिर होगा और हैरान कर देगा मुझे,
जितनी भी मुश्किल में हूँ आसान कर देगा मुझे;

रू-ब-रू कर के कभी अपने महकते सुर्ख़ होंठ,
एक दो पल के लिए गुलदान कर देगा मुझे;

रूह फूँकेगा मोहब्बत की मेरे पैकर में वो,
फिर वो अपने सामने बे-जान कर देगा मुझे;

ख़्वाहिशों का ख़ूँ बहाएगा सर-ए-बाज़ार-ए-शौक़,
और मुकम्मल बे-ए-सर-ओ-सामान कर देगा मुझे;

मुनहदिम कर देगा आ कर सारी तामीरात-ए-दिल,
देखते ही देखते वीरान कर देगा मुझे;

या तो मुझ से वो छुड़ा देगा ग़ज़ल-गोई 'ज़फ़र',
या किसी दिन साहब-ए-दीवान कर देगा मुझे।

निगाहों का मर्कज़ बना जा रहा हूँ;
मोहब्बत के हाथों लुटा जा रहा हूँ;

मैं क़तरा हूँ लेकिन ब-आग़ोशे-दरिया;
अज़ल से अबद तक बहा जा रहा हूँ;

वही हुस्न जिसके हैं ये सब मज़ाहिर;
उसी हुस्न से हल हुआ जा रहा हूँ;

न जाने कहाँ से न जाने किधर को;
बस इक अपनी धुन में उड़ा जा रहा हूँ;

न सूरत न मआनी न पैदा, न पिन्हाँ
ये किस हुस्न में गुम हुआ जा रहा हूँ।

बिछड़ा है जो एक बार तो मिलते नहीं देखा,
इस ज़ख़्म को हमने कभी सिलते नहीं देखा;

इस बार जिसे चाट गई धूप की ख़्वाहिश,
फिर शाख़ पे उस फूल को खिलते नहीं देखा;

यक-लख़्त गिरा है तो जड़ें तक निकल आईं,
जिस पेड़ को आँधी में भी हिलते नहीं देखा;

काँटों में घिरे फूल को चूम आयेगी तितली,
तितली के परों को कभी छिलते नहीं देखा;

किस तरह मेरी रूह हरी कर गया आख़िर,
वो ज़हर जिसे जिस्म में खिलते नहीं देखा।

हम को जुनूँ क्या सिखलाते हो हम थे परेशाँ तुमसे ज्यादा,
चाक किये हैं हमने अज़ीज़ों चार गरेबाँ तुमसे ज्यादा;

चाक-ए-जिगर मुहताज-ए-रफ़ू है आज तो दामन सिर्फ़ लहू है,
एक मौसम था हम को रहा है शौक़-ए-बहाराँ तुमसे ज्यादा;

जाओ तुम अपनी बाम की ख़ातिर सारी लवें शमों की कतर लो,
ज़ख़्मों के महर-ओ-माह सलामत जश्न-ए-चिराग़ाँ तुमसे ज्यादा;

ज़ंजीर-ओ-दीवार ही देखी तुमने तो "मजरूह" मगर हम,
कूचा-कूचा देख रहे हैं आलम-ए-ज़िंदाँ तुमसे ज्यादा।

न आते हमें इसमें तकरार क्या थी,
मगर वादा करते हुए आर क्या थी;

तुम्हारे पयामी ने ख़ुद राज़ खोला,
ख़ता इसमें बन्दे की सरकार क्या थी;

भरी बज़्म में अपने आशिक़ को ताड़ा,
तेरी आँख मस्ती में होशियार क्या थी;

तअम्मुल तो था उनको आने में क़ासिद,
मगर ये बता तर्ज़े-इन्कार क्या थी;

खिंचे ख़ुद-ब-ख़ुद जानिबे-तूर मूसा,
कशिश तेरी ऐ शौक़े-दीदाए क्या थी;

कहीं ज़िक्र रहता है इक़बाल तेरा,
फ़ुसूँ था कोई तेरी गुफ़्तार क्या थी।

ज़वाले- शब् में किसी की सदा निकल आये,
सितारा डूबे सितारा-नुमा निकल आये;

अजब नहीं कि ये दरिया नज़र का धोका हो,
अजब नहीं कि कोई रास्ता निकल आये;

ये किसने दश्ते-बुरीदा की फसल बोई थी,
तमाम शहर में नख़्ल-दुआ निकल आये;

बड़ी घुटन है, चराग़ों का क्या ख़याल करूँ,
अब इस तरफ कोई मौजे-हवा निकल आये;

खुदा करे सफे-सरदारगाँ न हो ख़ाली,
जो मैं गिरूँ तो कोई दूसरा निकल आये।