कह रही है हश्र में वो आँख शर्माई हुई,
हाय कैसे इस भरी महफ़िल में रुसवाई हुई;
आईने में हर अदा को देख कर कहते हैं वो,
आज देखा चाहिये किस किस की है आई हुई;
कह तो ऐ गुलचीं असीरान-ए-क़फ़स के वास्ते,
तोड़ लूँ दो चार कलियाँ मैं भी मुर्झाई हुई;
मैं तो राज़-ए-दिल छुपाऊँ पर छिपा रहने भी दे,
जान की दुश्मन ये ज़ालिम आँख ललचाई हुई;
ग़म्ज़ा-ओ-नाज़-ओ-अदा सब में हया का है लगाव,
हाए रे बचपन की शोख़ी भी है शर्माई हुई;
गर्द उड़ी आशिक़ की तुर्बत से तो झुँझला के कहा,
वाह सर चढ़ने लगी पाँओं की ठुकराई हुई।
कभी बहुत है कभी ध्यान तेरा कुछ कम है,
कभी हवा है कभी आँधियों का मौसम है;
अभी न तोड़ा गया मुझ से कै़द-ए-हस्ती को,
अभी शराब-ए-जुनूँ का नशा भी मद्धम है;
कि जैसे साथ तेरे ज़िंदगी गुज़रती हो,
तेरा ख़याल मेरे साथ ऐसे पैहम है;
तमाम फ़िक्र-ए-ज़मान-ओ-मकाँ से छूट गई,
सियाह-कारी-ए-दिल मुझे को ऐसा मरहम है;
मैं ख़ुद मुसाफ़िर-ए-दिल हूँ उसे न रोकुँगी,
वो ख़ुद ठहर न सकेगा जो कै़दी-ए-ग़म है;
वौ शौक़-ए-तेज़-रवी है कि देखता है जहाँ,
ज़मीं पे आग लगी आसमान बरहम है।
वफ़ा के शीश महल में सजा लिया मैनें;
वो एक दिल जिसे पत्थर बना लिया मैनें;
ये सोच कर कि न हो ताक में ख़ुशी कोई;
ग़मों कि ओट में ख़ुद को छुपा लिया मैनें;
कभी न ख़त्म किया मैं ने रोशनी का मुहाज़;
अगर चिराग़ बुझा, दिल जला लिया मैनें;
कमाल ये है कि जो दुश्मन पे चलाना था;
वो तीर अपने कलेजे पे खा लिया मैनें;
"क़तील" जिसकी अदावत में एक प्यार भी था;
उस आदमी को गले से लगा लिया मैनें।
बरसों ग़म-ए-गेसू में गिरफ़्तार तो रखा,
अब कहते हो कि तुम ने मुझे मार तो रखा;
कुछ बे-अदबी और शब-ए-वस्ल नहीं की,
हाँ यार के रूख़्सार पे रूख़्सार तो रखा;
इतना भी ग़नीमत है तेरी तरफ़ से ज़ालिम,
खिड़की न रखी रौज़न-ए-दीवार तो रखा;
वो ज़ब्ह करे या न करे ग़म नहीं इस का,
सर हम ने तह-ए-ख़ंजर-ए-ख़ूँ-ख़्वार तो रखा;
इस इश्क़ की हिम्मत के मैं सदक़े हूँ कि 'बेगम',
हर वक़्त मुझे मरने पे तैयार तो रखा।
दुख देकर सवाल करते हो,
तुम भी गालिब, कमाल करते हो;
देख कर पुछ लिया हाल मेरा,
चलो इतना तो ख्याल करते हो;
शहर-ए-दिल मेँ उदासियाँ कैसी,
ये भी मुझसे सवाल करते हो;
मरना चाहे तो मर नही सकते,
तुम भी जीना मुहाल करते हो;
अब किस-किस की मिसाल दूँ तुमको,
तुम हर सितम बेमिसाल करते हो।
फिर हुनर-मंदों के घर से बे-बुनर जाता हूँ मैं.
तुम ख़बर बे-ज़ार हो अहल-ए-नज़र जाता हूँ मैं;
जेब में रख ली हैं क्यों तुम ने ज़ुबानें काट कर,
किस से अब ये अजनबी पूछे किधर जाता हूँ मैं;
हाँ मैं साया हूँ किसी शय का मगर ये भी तो देख,
गर तआक़ुब में न हो सूरज तो मर जाता हूँ मैं;
हाथ आँखों से उठा कर देख मुझ से कुछ न पूछ,
क्यों उफ़ुक पर फैलती सुब्हों से डर जाता हूँ मैं;
'अर्श' रस्मों की पनह-गाहें भी अब सर पर नहीं,
और वहशी रास्तों पर बे-सिपर जाता हूँ मैं।
बात बनती नहीं ऐसे हालात में,
मैं भी जज़्बात में, तुम भी जज़्बात में;
कैसे सहता है मिलके बिछडने का ग़म,
उससे पूछेंगे अब के मुलाक़ात में;
मुफ़लिसी और वादा किसी यार का,
खोटा सिक्का मिले जैसे ख़ैरात में;
जब भी होती है बारिश कही ख़ून की,
भीगता हूं सदा मैं ही बरसात में;
मुझको किस्मत ने इसके सिवा क्या दिया,
कुछ लकीरें बढा दी मेरे हाथ में;
ज़िक्र दुनिया का था, आपको क्या हुआ,
आप गुम हो गए किन ख़यालात में;
दिल में उठते हुए वसवसों के सिवा,
कौन आता है 'साग़र' सियह रात में।
कितने शिकवे गिल हैं पहले ही,
राह में फ़ासले हैं पहले ही;
कुछ तलाफ़ी निगार-ए-फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ,
हम लुटे क़ाफ़िले हैं पहले ही;
और ले जाए गा कहाँ गुचीं,
सारे मक़्तल खुले हैं पहले ही;
अब ज़बाँ काटने की रस्म न डाल,
कि यहाँ लब सिले हैं पहले ही;
और किस शै की है तलब 'फ़ारिग़',
दर्द के सिलसिले हैं पहले ही।
चोट लगी तो अपने अन्दर चुपके चुपके रो लेते हो,
अच्छी बात है आसानी से ज़ख्मों को तुम धो लेते हो;
दिन भर कोशश करते हो सब को ग़म का दरमाँ मिल जाये,
नींद की गोली खाकर शब भर बेफ़िक्री में सो लेते हो;
अपनों से मोहतात रहो, सब नाहक़ मुश्रिक समझेंगे,
ज्यों ही अच्छी मूरत देखी पीछे पीछे हो लेते हो;
ख़ुश-एख्लाक़ी ठीक है लेकिन सेहत पे ध्यान ज़रूरी है,
बैठे बैठे सब के दुख में अपनी जान भिगो लेते हो;
'अंसारी जी' आस न रक्खो कोई तुम्हें पढ़ पायेगा,
क्या यह कम है पलकों में तुम हर्फ़-ए-अश्क पिरो लेते हो।
दिल ने एक एक दुख सहा तनहा,
अंजुमन अंजुमन रहा तन्हा;
ढलते सायों में तेरे कूचे से,
कोई गुज़रा है बारहा तन्हा;
तेरी आहट क़दम क़दम और मैं,
इस मइयत में भी रहा तन्हा;
कहना यादों के बर्फ़-ज़ारों से,
एक आँसू बहा बहा तनहा;
डूबते साहिलों के मोड़ पे दिल,
इक खंडर सा रहा सहा तन्हा;
गूँजता रह गया ख़लाओं में;
वक़्त का एक क़हक़हा तन्हा।