आँखें सहर तलक मिरी दर से लगी रहीं;
क्या पूछते हो हाल शब-ए-इंतिज़ार का!
ऊँची ऊँची इमारतों में मेरे हिस्से का आसमान लापता;
मसरूफ़ से इस शहर में जिस्म तो हैं इंसान लापता!
भूल जाना था तो फिर अपना बनाया क्यूँ था;
तुम ने उल्फत का यकीं मुझ को दिलाया क्यूँ था
कब खुलेगा कि फलक पार से आगे क्या है;
किस को मालूम कि दीवार से आगे क्या है!
बाहर बाहर सन्नाटा है अंदर अंदर शोर बहुत;
दिल की घनी बस्ती में यारो आन बसे हैं चोर बहुत!
मुझ से कहते हो क्या कहेंगे आप;
जो कहूँगा तो क्या सुनेंगे आप!
धूप रुख़्सत हुई शाम आई सितारा चमका;
गर्द जब बैठ गई नाम तुम्हारा चमका!
ख़ुदा को भूले न जब तक हमें ख़ुदा न मिला;
ये मुद्दआ' भी ब-जुज़ तर्क-ए-मुद्दआ न मिला!
दानिस्ता हम ने अपने सभी गम छुपा लिए;
पूछा किसी ने हाल तो बस मुस्कुरा दिए!
इकरार किसी दिन है तो इंकार किसी दिन;
हो जाएगी अब आप से तकरार किसी दिन!



