चेहरा बता रहा था कि मारा है भूख ने;
सब लोग कह रहे थे कि कुछ खा के मर गया।
अब तो अपनी तबियत भी कुछ जुदा सी लगती है;
सांस लेता हूँ तो ज़ख्मों को हवा सी लगती है;
कभी राज़ी तो कभी मुझसे खफा सी लगती है;
ज़िंदगी तु ही बता कि तु मेरी क्या लगती है।
जियो जिंदगी जरुरत के मुताबिक;
ख्वाइशों के मुताबिक नहीं;
जरुरत फ़क़ीर भी कर लेता हैं पूरी;
ख्वाइश कभी बादशाह की भी पूरी नहीं हुई।
ज़िंदगी भर के लिए है मौत से अनुबंध मेरा;
जब तलक जिंदा रहूँगा पास फटकेगी नहीं वो।
हमारा चार दिन की ज़िंदगी में हाल है ऐसा;
न जाने लोग कैसे हैं जो सौ सौ साल जीते है।
हादसों की ज़द में हैं तो क्या मुस्कुराना छोड़ दें;
जलजलों के खौफ से क्या घर बनाना छोड़ दें??
जुगनुओं की रोशनी से तीरगी हटती नहीं;
आइने की सादगी से झूठ की पटती नहीं;
ज़िंदगी में गम नहीं फिर ज़िंदगी में क्या मजा;
सिर्फ खुशियों के सहारे ज़िंदगी कटती नहीं।
क़ब्र की मिट्टी हाथ में लिए सोच रहा हूँ;
लोग मरते हैं तो ग़ुरूर कहाँ जाता है।
जिदंगी तेरे ख्वाब भी कमाल के है;
तु गरीबों को उन महलों के सपने दिखाती है;
जिसमें अमीरों को नींद नहीं आती।
मुझको थकने नहीं देता, ये जरूरतों का पहाड़;
मेरे बच्चे मुझे बूढा होने नहीं देते।



