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थोड़ी मस्ती थोड़ा सा ईमान बचा पाया हूँ;
ये क्या कम है मैं अपनी पहचान बचा पाया हूँ;
कुछ उम्मीदें, कुछ सपने, कुछ महकी-महकी यादें;
जीने का मैं इतना ही सामान बचा पाया हूँ।

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ज़िन्दगी दरस्त-ए-ग़म थी और कुछ नहीं;
ये मेरा ही हौंसला है की दरम्यां से गुज़र गया!

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न ख्वाहिशें हैं न शिकवे हैं अब न ग़म हैं कोई;
ये बेख़ुदी भी कैसे कैसे ग़ुल खिलाती है!

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जब टूटने लगे हौंसला तो बस ये याद रखना;
बिना मेहनत के हासिल तख़्त-ओ-ताज नहीं होते;
ढूढ़ लेना अंधेरे में ही मंजिल अपनी दोस्तों;
क्योंकि जुगनू कभी रोशनी के मोहताज़ नहीं होते।

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आगे तो परीजाद ये रखते थे हमें घेर;
आते थे चले आप जो लगती थी ज़रा देर;
सो आके बुढ़ापे ने किया हाय ये अंधेरे;
जो दौड़ के मिलते थे वो अब हैं मुंह फेर।

कौन अंदाजा मेरे गम का लगा सकता है;
कौन सही राह दिखा सकता है;
किनारों वालों तुम उसका दर्द क्या जानो;
डूबने वाला ही गहराई बता सकता है।

हंसने के बाद क्यों रुलाती है दुनिया;
जाने के बाद क्यों भुलाती है दुनिया;
जिंदगी में क्या कोई कसर बाकी है;
जो मर जाने के बाद भी जलाती है दुनिया।

आबादी भी देखी है, वीराने भी देखे हैं;
जो उजड़े और फिर न बसे, दिल की निराली बस्ती है।

हर रिश्ते में विश्वास रहने दो;
जुबान पर हर वक़्त मिठास रहने दो;
यही तो अंदाज़ है जिंदगी जीने का;
न खुद रहो उदास, न दूसरों को रहने दो।

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जिंदगी ने कुछ इस तरह का रूख लिया;
जिसने जिस तरफ चाहा मोड़ दिया;
जिसको जितनी थी जरुरत साथ चला;
और फिर एक लम्हें में तन्हा छोड़ दिया!

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