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हम भी वहीं मौजूद थे हम से भी सब पूछा किए,
हम हँस दिए हम चुप रहे मंज़ूर था पर्दा तेरा;
इस शहर में किस से मिलें हम से तो छूटीं महफ़िलें,
हर शख़्स तेरा नाम ले हर शख़्स दीवाना तेरा!

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अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं,
'फ़राज़' अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं;
जुदाइयाँ तो मुक़द्दर हैं फिर भी जान-ए-सफ़र,
कुछ और दूर ज़रा साथ चल के देखते हैं!

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जो कहा मैंने कि प्यार आता है मुझ को तुम पर;
हँस के कहने लगा और आप को आता क्या है !

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बेचैन इस क़दर था कि सोया न रात भर;
पलकों से लिख रहा था तेरा नाम चाँद पर!

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समझा लिया फ़रेब से मुझ को तो आप ने;
दिल से तो पूछ लीजिए क्यों बे-क़रार है!

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वो पल कि जिस में मोहब्बत जवान होती है,
उस एक पल का तुझे इंतज़ार है कि नहीं;
तेरी उम्मीद पे ठुकरा रहा हूँ दुनिया को,
तुझे भी अपने पे ये ऐतबार है कि नहीं!

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अज़ीज़ इतना ही रखो कि जी सँभल जाए;
अब इस क़दर भी न चाहो कि दम निकल जाए!
~ उबैदुल्लाह अलीम
'अज़ीज़
*दोस्त, प्रिय, प्यारा,

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ख़बर-ए-तहय्युर-ए-इश्क़ सुन न जुनूँ रहा न परी रही,
न तो तू रहा न तो मैं रहा जो रही सो बे-ख़बरी रही;
शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी,
न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही!

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ढल चुकी रात मुलाक़ात कहाँ सो जाओ;
सो गया सारा जहाँ सारा जहाँ सो जाओ!

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"शहर में अपने ये लैला ने मुनादी कर दी,
कोई पत्थर से न मारे मेंरे दीवाने को।"