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"ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने,
लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।"

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क़ासिद के आते आते ख़त एक और लिख रखूँ;
मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में!

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ईद का दिन है, गले आज तो मिल ले ज़ालिम;
रस्म-ए-दुनिया भी है, मौक़ा भी है, दस्तूर भी है।

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मैं उस के बदन की मुक़द्दस किताब;
निहायत अक़ीदत से पढ़ता रहा!
*मुक़द्दस: पवित्र
*अक़ीदत: श्रद्धा

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अब जो एक हसरत-ए-जवानी है;
उम्र-ए-रफ़्ता की ये निशानी है!

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भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया;
ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं।

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ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है;
वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है।

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बंद आँखें करूँ और ख़्वाब तुम्हारे देखूँ;
तपती गर्मी में भी वादी के नज़ारे देखूँ!

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आने वाली है क्या बला सिर पर;
आज फिर दिल में दर्द है कम कम!

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देख कर हम को न पर्दे में तू छुप जाया कर;
हम तो अपने हैं मियाँ ग़ैर से शरमाया कर!

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