शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं;
इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं!
तुम परिंदों से ज़्यादा तो नहीं हो आज़ाद;
शाम होने को है अब घर की तरफ़ लौट चलो!
इन्हीं पत्थरों पे चल कर अगर आ सको तो आओ;
मेरे घर के रास्ते में कोई कहकशाँ नहीं है!
*कहकशाँ: आकाशगंगा, छायापथ
तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो;
मैं दिल किसी से लगा लूँ अगर इजाज़त हो!
*हिज्र- जुदाई, वियोग, विछोह, विरह
इन चिराग़ों में तेल ही कम था;
क्यों गिला फिर हमें हवा से रहे!
हालात से ख़ौफ़ खा रहा हूँ;
शीशे के महल बना रहा हूँ!
ऐ ग़म-ए-ज़िंदगी न हो नाराज़;
मुझ को आदत है मुस्कुराने की!
कोई समझेगा क्या राज़-ए-गुलशन;
जब तक उलझे न काँटों से दामन!
तिनकों से खेलते ही रहे आशियाँ में हम;
आया भी और गया भी ज़माना बहार का!
उन का ग़म उन का तसव्वुर उन के शिकवे अब कहाँ;
अब तो ये बातें भी ऐ दिल हो गयी आई गई!



