उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या, दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या; मेरी हर बात बे-असर ही रही, नक़्स है कुछ मेरे बयान में क्या!
तुम्हारे ख़त में नया एक सलाम किस का था,
सुला कर तेज़ धारों को किनारो तुम न सो जाना; रवानी ज़िंदगानी है तो धारो तुम न सो जाना!
हम को किस के गम ने मारा ये कहानी फिर सही; किस ने तोडा ये दिल हमारा ये कहानी फिर सही!
वही कारवाँ वही रास्ते वही ज़िंदगी वही मरहले; मगर अपने अपने मक़ाम पर कभी तुम नहीं कभी हम नहीं!
दिन रात मय-कदे में गुज़रती थी ज़िंदगी; 'अख़्तर' वो बे-ख़ुदी के ज़माने किधर गए! *मय-कदे: शराबख़ाना
चार दिन की ज़िन्दगी,
मैं किस से कतरा के चलूँ,
ख़ाक़ हूँ, मैं ख़ाक़ पर,
क्या ख़ाक़ इतरा के चलूँ!
धूप की गरमी से ईंटें पक गयीं फल पक गए; एक हमारा जिस्म था 'अख़्तर' जो कच्चा रह गया!
सिर्फ़ एक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में; मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही!
तुम मेरे लिए अब कोई इल्ज़ाम न ढूंढो; चाहा था तुम्हें एक यही इल्ज़ाम बहुत है!