नयी सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है; ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे!
कब वो सुनता है कहानी मेरी; और फिर वो भी ज़बानी मेरी!
उस ना-ख़ुदा के ज़ुल्म ओ सितम हाए क्या करूँ; कश्ती मेरी डुबोई है साहिल के आस-पास! *साहिल: किनारा
ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं, वफ़ा-दारी का दावा क्यों करें हम; वफ़ा इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत, अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यों करें हम! *इख़्लास: सच्चा और निष्कपट प्रेम
मुद्दतों बाद, लौटे है तेरे शहर में,
एक तुझे छोड़, कुछ भी तो नहीं बदला !
तो क्या सारे गिले-शिकवे अभी कर लोगे मुझ से, कुछ अब कल के लिए रखो मुझे नींद आ रही है; सहर होगी तो देखेंगे कि हैं क्या क्या मसाइल, ज़रा सी देर सोने दो मुझे नींद आ रही है! *मसाइल: समस्याएँ
अपने हर हर लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा; उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा; तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नहीं, मैं गिरा तो मसला बन कर खड़ा हो जाऊँगा!
ग़ैरों से कहा तुमने ग़ैरों से सुना तुमने; कुछ हम से कहा होता कुछ हम से सुना होता!
छेड़ मत हर दम न आईना दिखा; अपनी सूरत से ख़फ़ा बैठे हैं हम!
यारों की मोहब्बत का यकीन कर लिया मैंने, फूलों में छुपाया हुआ ख़ंजर नहीं देखा; महबूब का घर हो कि बुज़ुर्गों की ज़मीनें, जो छोड़ दिया फिर उसे मुड़ कर नहीं देखा!