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मज़हब, दौलत, ज़ात, घराना, सरहद, ग़ैरत, खुद्दारी;
एक मोहब्बत की चादर को, कितने चूहे कुतर गए।

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नजर अदांज करने की कुछ तो वजह बताई होती;
अब मैं कहाँ-कहाँ खुद में बुराई खोज सकता हूँ।

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मुकम्मल ना सही अधूरा ही रहने दो;
ये इश्क़ है कोई मक़सद तो नहीं।

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इल्म-ओ-अदब के सारे खज़ाने गुज़र गए,
क्या खूब थे वो लोग पुराने गुज़र गए;
बाकी है जमीं पे फ़कत आदमी की भीड़,
इंसान को मरे हुए तो ज़माने गुज़र गए।

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न माँझी, न रहबर, न हक में हवायें;
है कश्ती भी जर्जर, ये कैसा सफर है;
अलग ही मजा है, फ़कीरी का अपना;
न पाने की चिन्ता न खोने का डर है।

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जादू है या तिलिस्म तुम्हारी ज़बान में;
तुम झूठ कह रहे थे मुझे ऐतबार था।

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और कोई गम नहीं एक तेरी जुदाई के सिवा;
मेरे हिस्से में क्या आया तन्हाई के सिवा;
यूँ तो मिलन की रातें मिली बेशुमार;
प्यार में सब कुछ मिला शहनाई के सिवा।

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कुछ तर्ज़-ए-सितम भी है कुछ अंदाज़-ए-वफ़ा भी;
खुलता नहीं हाल उन की तबियत का ज़रा भी।

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बेखबर से रहते हो, खबर भी रखते हो;
बात भी नहीं करते और प्यार भी करते हो!

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हर-चंद ऐतबार में धोखे भी हैं मगर;
ये तो नहीं किसी पे भरोसा किया न जाए!

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