हमें कोई ग़म नहीं था ग़म-ए-आशिक़ी से पहले,
न थी दुश्मनी किसी से तेरी दोस्ती से पहले;
है ये मेरी बदनसीबी तेरा क्या कसूर इसमें,
तेरे ग़म ने मार डाला मुझे ज़िन्दग़ी से पहले।

मुस्कुरा कर उन का मिलना और बिछड़ना रूठ कर;
बस यही दो लफ़्ज़ एक दिन दास्ताँ हो जायेंगे।

तुम्हारी खुशियों के ठिकाने बहुत होंगे मगर,
हमारी बेचैनियों की वजह बस तुम हो।

वो लफ्ज कहाँ से लाऊं जो तेरे दिल को मोम कर दें,
मेरा वजूद पिघल रहा है तेरी बेरूखी से।

ना कर दिल अजारी, ना रुसवा कर मुझे;
जुर्म बता, सज़ा सुना और किस्सा खत्म कर।
कसूर ना उनका है ना मेरा, हम दोनो रिश्तों की रसमें निभाते रहे;
वो दोस्ती का एहसास जताते रहे, हम मोहबत को दिल में छुपाते रहे।

ज़िन्दगी यूँ ही बहुत कम है, मोहब्बत के लिए;
फिर एक दूसरे से रूठकर वक़्त गँवाने की जरूरत क्या है।
हाल जब भी पूछो खैरियत बताते हो,
लगता है मोहब्बत छोड़ दी तुमने।
भीड़ में भी आज भी तन्हा खड़े हैं,
जहाँ उनका साथ होना था वहाँ भी अकेले खड़े हैं।
वैसे ही दिन वैसी ही रातें हैं ग़ालिब, वही रोज का फ़साना लगता है;
अभी महीना भी नहीं गुजरा और यह साल अभी से पुराना लगता है।