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बहुत शख्स मिले जो समझाते थे मुझे,
काश! कोई मुझे समझने वाला भी मिलता।

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अब इस सादा कहानी को नया एक मोड़ देना था,
ज़रा सी बात पर अहद-ए-वफ़ा ही तोड़ देना था,
महकता था बदन हर वक़्त जिस के लम्स-ए-खुशबू से,
वही गुलदस्ता दहलीज़-ए-खिजाँ पर छोड़ देना था।

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इस कश्मकश में उलझा है दिल आपका,
पढ़ लिया है सब कुछ मगर जवाब नहीं आया कोई।

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ये नज़र चुराने की आदत आज भी नहीं बदली उनकी,
कभी मेरे लिए ज़माने से और अब ज़माने के लिए हमसे।

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इसी शहर में कई साल से मेरे कुछ क़रीबी अज़ीज़ हैं,
उन्हें मेरी कोई ख़बर नहीं मुझे उन का कोई पता नहीं।

अब जो रूठे तो हार जाओगे सनम,
हम मनाने का हुनर भूल बैठे हैं।

मंज़िल पाना तो बहुत दूर की बात है,
गुरूर में रहोगे तो रास्ते भी ना देख पाओगे।

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शिकायत है उन्हें कि ,हमें मोहब्बत करना नहीं आता,
शिकवा तो इस दिल को भी है पर इसे शिकायत करना नहीं आता।

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लोग कहते हैं मोहब्बत में असर होता है,
कौन से शहर में होता है किधर होता है।

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बदल जाओ भले तुम मगर ये ज़ेहन में याद रखना,
कहीं पछतावा ना बन जाये हमसे बेरुखी इतनी।

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