झूठ बोलने का रियाज़ करता हूँ, सुबह और शाम में;
सच बोलने की अदा ने हमसे कई अज़ीज़ छीन लिए।
इश्क़ को भी इश्क़ हो तो फिर देखूं मैं इश्क़ को भी,
कैसे तड़पे, कैसे रोये, इश्क़ अपने इश्क़ में।
नाकाम थीं मेरी सब कोशिशें उस को मनाने की,
पता नहीं कहाँ से सीखी जालिम ने अदायें रूठ जाने की।
था जहाँ कहना वहां कह न पाये उम्र भर,
कागज़ों पर यूँ शेर लिखना बेज़ुबानी ही तो है।
उम्र ने तलाशी ली तो जेबों से लम्हे बरामद हुए,
कुछ ग़म के, कुछ नम थे, कुछ टूटे, कुछ सही सलामत थे।
दुश्मनों के साथ मेरे दोस्त भी आज़ाद हैं,
देखना है खींचता है मुझ पे पहला तीर कौन।
इसे इत्तेफाक समझो या दर्द भरी हकीकत,
आँख जब भी नम हुई वजह कोई अपना ही था।
नही रहता कोई शख़्स अधूरा किसी के भी बिना,
वक़्त गुज़र ही जाता है, कुछ खोकर भी कुछ पाकर भी।
वक़्त रहता नहीं कहीं टिक कर,
आदत इस की भी आदमी सी है।
यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं,
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे।



