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बहुत अज़ीज़ न क्यों हो कि दर्द है तेरा;
ये दर्द बढ़ के रहा इज़्तिराब हो के रहा!

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दर्द का ज़ायका बताऊँ क्या;
ये इलाक़ा ज़ुबान से बाहर है!

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दर्द का फिर मज़ा है जब 'अख़्तर';
दर्द ख़ुद चारा साज़ हो जाए!
*अख़्तर: तारा, सितारा, क़िस्मत

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दिल सरापा दर्द था वो इब्तिदा-ए-इश्क़ थी;
इंतेहा ये है कि 'फ़ानी' दर्द अब दिल हो गया!

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एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक;
जिस को भी पास से देखोगे अकेला होगा!

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चल साथ कि हसरत दिल-ए-मरहूम से निकले,
आशिक़ का जनाज़ा है, ज़रा धूम से निकले।

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न हम-सफ़र न किसी हम-नशीं से निकलेगा;
हमारे पाँव का काँटा हमीं से निकलेगा!

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उस को रुख़्सत तो किया था मुझे मालूम न था; सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला! *रुख़्सत:बिछड़ना

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दर्द का ज़ायका बताऊँ क्या;
ये इलाक़ा ज़ुबाँ से बाहर है!

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किस दर्जा दिल-शिकन थे मोहब्बत के हादसे;
हम ज़िंदगी में फिर कोई अरमाँ न कर सके!