जो लोग मौत को ज़ालिम क़रार देते हैं; ख़ुदा मिलाए उन्हें ज़िंदगी के मारों से!
आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब, दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होते तक; ता-क़यामत शब-ए-फ़ुर्क़त में गुज़र जाएगी उम्र, सात दिन हम पे भी भारी हैं सहर होते तक!
अब मेरी कोई ज़िंदगी ही नहीं; अब भी तुम मेरी ज़िंदगी हो क्या!
पत्थर तो हज़ारों ने मारे थे मुझे लेकिन; जो दिल पे लगा आ कर इक दोस्त ने मारा है!
शबनम के आँसू फूल पर ये तो वही क़िस्सा हुआ; आँखें मेरी भीगी हुई चेहरा तेरा उतरा हुआ!
जब से छूटा है गुलिस्ताँ हम से; रोज़ सुनते हैं बहार आई है! *गुलिस्ताँ: फूलों का बगीचा
हमें तो ख़ैर बिखरना ही था कभी न कभी; हवा-ए-ताज़ा का झोंका बहाना हो गया है!
सब्र ऐ दिल कि ये हालत नहीं देखी जाती; ठहर ऐ दर्द कि अब ज़ब्त का यारा न रहा! *ज़ब्त: सहन
एक दो ज़ख़्म नहीं जिस्म है सारा छलनी; दर्द बे-चारा परेशान है कहाँ से निकले!
तुम्हारी याद में दुनिया को हूँ भुलाए हुए; तुम्हारे दर्द को सीने से हूँ लगाए हुए!